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षटचत्वारिंशत्तमं पर्व
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राजा कदाचिदवाजीद घटया ललिताख्यया। विहारार्थ वनं तत्र वाप्यामालोक्य विस्मयात् ॥५८॥ तटशुष्कांधिपासन्नशाखाग्रस्थपरिस्फुरन् । 'परार्ध्यवायसानीतपद्मरागमणिप्रभाम् ॥५६॥ मणि मत्वा प्रविश्यान्तनैषु केनाप्य लम्भ्यसौ । भान्स्या प्रवर्तमानानां कुतः क्लेशाद् विना फलम् ॥६०॥ चिरं निरीक्ष्य निविण्णाः सर्वे ते पुरमागमन् । बुद्धिर्नाग्रेसरी यस्य न निर्बन्धः फलत्यसौ ॥६॥ कदाचिद् भूपतिः श्रेष्ठिसुतया रक्तचित्तया । वसुमत्या विभावर्याम् अात्मसौभाग्यसूचिना ॥६२॥ क्रमेण कुडाकुमाद्रेण ललाटे स्फुटमडकित: । कान्ताः किं किं न कुर्वन्ति स्वभागपतिते नरे॥६३॥ पट्टबन्धात परं मत्वा तत्क्रमाङकं महीपतिः। प्रातरास्थानमध्यास्य मन्त्र्यादीनित्यबूबुधत् ॥६४॥ ललाटे यदि केनापि राजा पादेन ताडितः । कर्तव्यं तस्य किं वाच्यं ततो मन्त्र्यब्रवीदिदम् ॥६॥ पट्टात् ललाटो नान्येन स्पुश्यः स यदि ताडितः । पादेन केनचिद् वध्यः स प्राणान्तमिति स्फुटम् ॥६६॥ तदाकावधूयैनं स्मितेनाहूय मातुलम् । नृपोऽप्राक्षीत् स" चाहैतत् प्रस्तुतं प्रस्तुतार्थवित् ॥६७॥ तस्य पूजा विधातव्या सर्वालडाकारसम्पदा । इति तद्वचनात्तुष्ट्वा मणि वार्ता न्यवेदयत् ॥६॥
समान होता है । राजाके वचन सुनकर सेठ भी दुःख सहित शीघ्र ही अपने घर चला गया ॥५७॥ किसी एक दिन राजा ललितघट नामक हाथीपर बैठकर विहार करनेके लिये वनमें गया, उस बनमें एक बावड़ी थी, उसके तटपर एक सूखा वृक्ष था, उसकी एक शाखा बावड़ीके निकटसे निकली थी, उस शाखाके अग्रभागपर एक कोवेने कहींसे देदीप्यमान बहुमूल्य पद्मराग मणि लाकर रख दी। बावड़ीम उस मणिकी कान्तिपड़ रही थी, राजा तथा उसके सब साथियों ने उस कान्तिको मणि समझा और यह देखकर सबको आश्चर्य हुआ-उस मणिको लेनेके लिये सब बावड़ी के भीतर घुसे परन्तु उनमेंसे वह मणि किसीको भी नहीं मिली सो ठीक ही है क्योंकि भ्रान्तिसे प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषोंको क्लेशके सिवाय और क्या फल मिल सकता है ॥५८-६०॥ उन सब लोगोंने बावड़ी में वह मणि बहुत देरतक देखी परन्तु जब नहीं मिली तब उदास हो अपने नगरको लौट आये सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रयत्नमें बुद्धि अग्रेसर नहीं होती वह प्रयत्न कभी सफल नहीं होता ॥६१॥ किसी समय प्रेमसे भरी हुई वसुमती नामकी सेठकी पुत्रीने रात्रिके समय अपने सौभाग्यको सूचित करनेवाले तथा कुंकुमसे गीले अपने पैरसे राजाके ललाट में स्पष्ट चिह्न बना दिया सो ठीक ही है क्योंकि पुरुषके अपने आधीन होनेपर स्त्रियां क्या क्या नहीं करती हैं ? ॥६२-६३॥ राजाने उस पैरके चिह्नको पट्टबन्धसे भी अधिक माना और सबेरा होते ही सभामें बैठकर मंत्री आदिसे इस प्रकार पूछा कि यदि कोई पैरसे राजाके ललाटपर ताड़न करे तो उसका क्या करना चाहिये ? यह सुनकर फल्गुमति मंत्रीने कहा कि राजाका जो ललाट पट्टके सिवाय किसी अन्य वस्तुके द्वारा छुआ भी नहीं जा सकता उसे यदि किसीने पैरसे ताड़न किया है तो उसे प्राण निकलने तक मारना चाहिये ॥६४-६६।। यह सुनकर राजाने उस मंत्रीका तिरस्कार किया तथा मन्द मन्द हँसीके साथ मामा कुबेरमित्रको बुलाकर उनसे सब हाल पूछा। प्रकृत बातको जाननेवाला कुबेरमित्र कहने लगा कि जिसने आपके शिरपर पैरसे प्रहार किया है उसकी सब प्रकारके आभूषणरूपी संपदासे पूजा करनी चाहिये । इस प्रकार उसके वचनोंसे संतुष्ट होकर राजाने वनविहारके समय बावड़ी में दिखनेवाले मणि
१ अगमत् । प्राब्राजीत् ल०। २ परार्ध्यमिति पद्मरागस्य विशेषणम् । ३ ललितघटाख्यजनेषु । ४ लब्धः । ५ मणिः । ६ पुरुषस्य । तस्य ट० । ७ अविच्छिन्नप्रवृत्ति । ८ न फलप्रदो भवति । ६ निजभार्यया । १० पादेन । ११ ताडित इत्यर्थः। १२ भवद्भिर्वक्तव्यम् । १३ परित्यज्य । १४ कुबेरमित्रः ।
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