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महापुराणम् अमितानन्तमत्यायिकाभ्याशे' संयम परम् । प्राददाते स्म यात्येवं काले तस्मिन् महीपतौ ॥४७॥ लोकपालाय दत्वाऽऽत्मलक्ष्मी संयममागते । शीलगुप्तगुरोः पार्वे शिवङकरवनान्तरे ॥४॥ देव्यः कनकमालाद्याः परे चोपाययुस्तपः। दुर्गमं च वजन्त्यल्पाः प्रभुर्यदि पुरस्सरः ॥४६॥ लोकपालोऽपि सम्प्राप्तराज्यश्रीविश्रुतोदयः । कुबेरभित्रबुद्ध्यव धरित्रीं प्रत्यपालयत् ॥५०॥ मन्त्री च फल्गुमत्याख्यो बालोऽसत्यवचः प्रियः । सवयस्को' नपस्याज्ञः प्रकृत्या चपलः खलः ॥५॥ तत्समी नुपेणामा यद्वा तद्वा मुखागतः । शडाकमानो वचो वक्तुं श्रेष्ठयपायं विचिन्त्य सः॥५२॥ स्वीकृत्य' शयनाध्यक्ष सामदानस्त्वया निशि । देवतावत्तिरोभूय राजन् पितसमं गुरुम्॥५३॥ विनयाद विच्युतं राजश्रेष्ठिनं तव सन्निधौ । विधाय सर्वथा मा स्थाः२ कार्यकाले सहयताम् ॥५४॥ इति वक्तव्यमित्याख्यत् "सोऽपि सर्व तथाकरोत् । अर्थाथिभिरकर्तव्यं न लोके नाम किञ्चन ॥५॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा सभीरालय मातुलम । नागन्तव्यमनाहूतरित्यनालोच्य सोऽब्रवीत् ॥५६॥
पश्चाद् विषविपाकिन्यः१८ प्रागनालोचितोक्तयः । श्रेष्ठी तद्वचनात् सद्यः सोद्वगं स्वगृहं ययौ ॥५७॥ यशस्वती नामकी दो कन्याएं भी वह नैमित्तिक परीक्षा देखनेके लिये आई थीं, जब मामा कुबेरमित्रने भोजनसे भरे हुए पात्र उन्हें नहीं दिये अपने आप ही लज्जाके भारसे उनके मुख नीचे हो गये और उसी समय उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया ।।४५-४६।। उन्होंने उसी समय अमितमति और अनन्तमति आयिकाके समीप उत्तम संयम धारण कर लिया। इस प्रका कितना ही समय व्यतीत होनेपर राजा प्रजापालने भी अपनी सब लक्ष्मी लोकपाल नामक पुत्रके लिये देकर शिवंकर नामके वनमें शीलगुप्त नामक मुनिराजके समीप संयम धारण कर लिया। इसी प्रकार कनकमाला आदि रानियोंने भी कठिन तपश्चरण धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि यदि राजा आगे चलता है तो अल्प शक्तिके धारक लोग भी उसी कठिन रास्तेसे चलने लगते हैं ॥४७-४९॥ इधर जिसे राज्यलक्ष्मी प्राप्त हुई है और जिसका वैभव सब जगह प्रसिद्ध हो रहा है ऐसा राजा लोकपाल भी कुबेरमित्रकी सम्मतिके अनुसार ही पृथिवीका पालन करने लगा ॥५०॥ उस राजाका फल्गुमति नामका एक मंत्री था, जो अज्ञानी था, असत्य बोलनेवाला था, राजाकी समान उमरका था, मूर्ख था और स्वभावसे चंचल तथा दुर्जन था ॥५१॥ वह मंत्री कुबेरदत्त सेठके सामने राजाके साथ मुंहपर आये हुए यदा तद्वा वचन कहने में कुछ डरता था इसलिये वह सेठको राजाके पाससे हटाना चाहता था। उसने राजाके शयनगृहके मुख्य पहरेदारको समझा बुझाकर और कुछ धन देकर अपने वश कर लिया, उसे समझाया कि तू रातके समय देवताके समान तिरोहित होकर राजासे कहना कि हे राजन्, राजसेठ कुबेरमित्र पिताके समान बड़े हैं, सदा अपने पास रखने में उनकी विनय नहीं हो पाती इसलिये उन्हें हमेशा अपने पास नहीं रखिये, कार्यके समय ही उन्हें बुलाया जाय इस प्रकार फलामतिने शयनगृहके अध्यक्षसे कहा और उसने भी सब काम उसीके कहे अनुसार कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि धन चाहनेवाले लोगोंके द्वारा नहीं करने योग्य कार्य इरा संसारमें कुछ भी नहीं है ।।५२-५५॥ शयनगृहके अधिकारीकी बात सुनकर राजाको भी कुछ भय हुआ और उसने बिना विचारे ही मामा (कुबेरमित्र) को बुलाकर कह दिया कि आप विना बुलाये न आवें॥५६॥ जो बात पहले विना विचार किये ही कही जाती है उसका फल पीछे विपके
१ समीपे । २ पुरो ल० । ३ प्राप्तवन्तः । ४ समानवयस्कः । ५ नपश्चान्यः इत्यपि पाठः । द्वितीयो नपः । मन्त्रीत्यर्थः । ६ असमर्थः । ७ कुबेरमित्रसन्निधौ। ८ यत्किञ्चित् । ६ स्ववशं कृत्वा । १० प्रियवचनसुवर्णरत्नादिदानैः । ११ पुज्यम् । १२ मा स्म तिष्ठ। १३ आहुयताम् । १४ शयनाध्यक्षः । १५ सभयः । १६ अनाहूयमान: भवद्भिः । १७ अविचार्य। १० विषपर विवाकवत्यः । १९ उगरादितम् ।
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