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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
४४९ सुगन्धिसलिलं गाडगं गम्भीरमधुर ध्वनन् । अम्भोघरो नभोभागाद् प्रासन्नादवमुञ्चति ॥३६॥ कल्पद्रुमद्वयं वस्त्रभूषणानि प्रयच्छति । अन्नमानं ददात्यन्यद् द्वयं कल्पमहीरहः ॥३७॥ एवमन्यच्च भोगाङगम् अशेषं देवनिर्मितम् । 'शश्वनिविशतस्तस्य पूर्ण प्राथमिकं वयः॥३८॥ तद्वीक्ष्य 'पितरावेष 'किमेकामभिलाषकः । किं बह्वीरिति चित्तेन सन्दिहानी" समाकुलौ ॥३६॥ । प्रियसेनं समाहूय तत्प्रश्नात्तन्मनोगतम् । अवादीधरता मैत्री सैव या त्वेकचित्तता ॥४०॥ ततः सनद्रदत्ताख्यो धनवत्या सहाभवत् । स्वसा कुबेरमित्रस्य तन्नामवंतयोः" सुता ॥४॥ प्रियदत्ताह्वया तस्याश्चेटिका५ रतिकारिणी । कन्यकास्तां विधायादि द्वात्रिंशत्सुन्दराकृतीः॥४२॥ श्रेष्ठी कदाचिदुद्यान यक्षपूजाविधौ सुधीः । सुपरीक्ष्य निमित्तन प्रियदत्तां गुणान्विताम् ॥४३॥ (अवधार्यास्य पुत्रस्य पञ्चताराबलान्विते । दिने महाविभूत्यना८ कल्याणविधिनाऽग्रहीत् ॥४४) तन्निमित्तपरीक्षायाम् अवलोकितुमागते । सुते गुणवती राज्ञो यशस्वत्यभिधा परा ॥४॥ भाजनं २०भक्ष्यसम्पूर्णमदत्तवतिर माकले (?) ! स्वाभ्यां३ लज्जाभरानभवदने जातनिविदे॥४६॥
समय समीपवर्ती आकाशसे आकर मधुर तथा गम्भीर गर्जना करते हुए मेघ सब प्रकारके रोग, पसीना और मलको हरण करनेवाला गंगा नदीका सुगन्धित जल बरसाते थे ॥३५-३६॥ उस कुमारके लिये एक कल्पवृक्ष वस्त्र देता था, एक आभूषण देता था, एक अन्न देता था और एक पेय पदार्थ देता था ॥३७॥ इस प्रकार इनके सिवाय देवोंके दिये हुए और भी सब प्रकारके भोगोंका निरन्तर उपभोग करते हुए उस कुमारकी पहली अवस्था पूर्ण हुई थी ॥३८॥ पहली अवस्थाको पूर्ण हआ देखकर माता पिताको चिन्ता हई कि यह एक कन्या चाहत अथवा बहुत । उसी चिन्तासे वे कुछ संदेह कर रहे थे और कुछ व्याकुल भी हो रहे थे। उन्होंने कुबेरकान्तके मित्र प्रियसेनको बुलाकर उसके मनकी बात पूछी और उसके कहनेपर उन्होंने निश्चय कर लिया कि इसके 'एक पत्नीव्रत है' यह एक ही कन्या चाहता है, सो ठीक ही है क्योंकि दोनोंका एक चित्त हो जाना ही मित्रता कहाती है ॥३९-४०॥
तदनन्तर-उसी नगरमें समुद्रदत्त नामका एक सेठ था, जो कि कुबेरमित्रकी स्त्री धनवती का भाई था और उसे कुबेरमित्रकी बहिन कुबेरमित्रा व्याही गई थी। इन दोनोंके प्रियदत्ता नामकी एक पूत्री हई थी और रतिकारिणी उसकी दासी थी। समद्रदत्त सेठके प्रियदत्ता आदि बत्तीस कन्याएं थीं। किसी एक दिन उस बुद्धिमान् सेठने एक बागमें यक्षकी पूजा करते समय सुन्दर आकारवाली उन बत्तीसों कन्याओंकी निमित्तवश परीक्षा की और उन सबमें प्रियदत्ताको ही गुणयुक्त समझा। फिर सूर्य, चन्द्र, गुरु, शुक्र और मंगल इन पांचों ताराओंके बलसे सहित किसी शुभ दिनमें बड़े वैभवके साथ कल्याण करनेवाली विधिसे उस प्रियदत्ताको अपने पुत्रके लिये स्वीकार किया ॥४१-४४॥ राजा प्रजापालकी गुणवती
१ गङगासम्बन्धि । २ गम्भीरं मधुरं ब०, अ०, प०, स०, इ०, ल० । ३ कल्पवृक्षस्य । ४ अनुभवतः । ५ जननीजनको। ६ एतामित्यपि पाठः । स्त्रियम् । ७ सन्देहं कुर्वन्तौ। ८ कुबेरकान्तस्य मित्रम् । ६ कुबेरकान्तस्याभिप्रायम् । १० एकपत्नीव्रतधारणमित्यवधारितवन्तौ । ११ कुबेरमित्रस्य भार्यया धनवत्या सहोत्पन्न इत्यर्थः । १२ भगिनी। १३ कुबेरमित्रा ह्वया । १४ समुद्रदत्तकुबेरमित्रयोः । १५ सखी। १६ द्वाविंशभाजनेषु विविधभक्ष्यपायसघृतं पूरयित्वा एकस्मिन् भाजने अनर्थ्य रत्नं निक्षिप्य यक्षाग्रे संस्थाप्य द्वात्रिंशत्कन्यकानामेकैकस्यै एकैकं भाजनं दत्तं यस्या हस्ते अनर्घ्य रत्नं समागतं सा मम पुत्रस्य प्रियेति सुपरीक्ष्य । १७ तिथ्यादिपञ्चनक्षत्रबलान्विते। १८ प्रियदत्ताम् । १६ प्रजापालनृपस्य । २० भक्ष-ल०, ब०, इ०. प०, अ०, स० । २१ अददति सति । २२ मातुले अ०, ५०, म०, इ०, ल०, ट० । निज मामे श्रेष्ठिनि । २३ आत्मभ्याम् । २४ उत्पन्नवैराग्ये ।
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