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महापुराणम्
मणिर्न जलमध्येऽस्ति तटस्थतरुसंश्रितः । प्रभाव्याप्यामिति प्राह तद्विचिन्त्य' वणिग्वरः ॥ ६६ ॥ तदा कुबेरमित्रस्य प्रज्ञामज्ञानमात्मनः । दौष्टय च मन्त्रिणो ज्ञात्वा पश्चात्तापान्महीपतिः ॥७०॥ पश्य धूतरह मूढो वञ्चितोऽस्मीति सर्वदा । श्रेष्ठिनं प्राप्तसम्मानं प्रत्यासन्नं व्यधात् सुधीः ॥७१॥ तन्त्रावाय महाभारं ततः प्रभृति भूपतिः । तस्मिन्नारोप्य निर्व्यग्रः सधमं काममन्वभूत् ॥ ७२ ॥ कदाचित् कान्तया दृष्टपलितो निजमूर्द्धनि । श्रेष्ठी तां सत्यमद्यत्वं धर्मपत्नीत्यभिष्टुवन् ॥ ७३ ॥ दृष्ट्वा विमोच्य राजानं वरधर्मगुरोस्तपः । सार्धं समुद्रदत्ताद्यैः श्रादाय सुरभूधरे ॥७४॥ तावुभौ ब्रह्मलोकन्तेऽभूतां लौकान्तिको सुरौ । किन साध्यं यथाकालपरिस्थित्या' मनीषिभिः ॥७५॥ श्रन्येद्युः प्रियदत्ताऽसौ दत्वा दानं मुनीशिने । भक्त्या विपुलमत्याख्यचारणाय यथोचितम् ॥७६॥ सम्प्राप्य नवधा पुण्यं तपसः सन्निधिर्मम । किमस्तीत्यब्रवीद् व्यक्तविनया मुनिपुङ्गवम् ॥७७॥ पुत्रलाभार्थि तच्चित्तं विदित्वाऽवधिलोचनः । वामेतरकर धीमान् स्पष्टमङगुलिपञ्चकम् ॥७८॥ कनिष्ठामगुल वामहस्तेऽसौ समदर्शयत् । पुत्रान्कालान्तरे पञ्च साऽऽचैकामात्मजामपि ॥७६॥ ते" कदाचिज्जगत्पालचक्रेशस्य सुते समम् । श्रमितानन्तमत्याख्ये गुणज्ञे गुणभूषणे ॥८०॥
की बात निवेदन की ।। ६७-६८ ।। वैश्यों में श्रेष्ठ कुबेरमित्रने विचारकर कहा कि वह मणि पानी के भीतर नहीं थी किन्तु किनारेपर खड़े हुए वृक्षपर थी, बावड़ी में केवल उसकी कान्ति पड़ रही थी ।।६९।। यह सुनकर उस समय राजा लोकपाल कुबेरमित्रकी बुद्धिमत्ता, अपनी मूर्खता और मंत्री की दुष्टता जानकर पश्चात्ताप करता हुआ इस प्रकार कहने लगा- "देखो इन धूर्तोंने मुझ मूर्खको खूब ही ठगा ।" इस प्रकार कहकर वह बुद्धिमान् राजा सेठका आदर-सत्कार कर उसे सदा अपने पास रखने लगा ।।७०-७१ ।। उस दिनसे राजाने तन्त्र अर्थात् अपने राष्ट्रकी रक्षा करना और अवाय अर्थात् परराष्टोंसे अपने सम्बन्धका विचार करना इन दोनोंका बड़ा भारी भार सेठको सौंप दिया और आप निर्द्वन्द्व होकर धर्म तथा काम पुरुषार्थका अनुभव करने लगा ॥७२॥ किसी समय सेठकी स्त्रीने सेठके शिरमें बाल देखकर सेठसे कहा । सेठने यह कहते हुए उसकी बड़ी प्रशंसा की कि तू आज सचमुच धर्मपत्नी हुई है । उस सेठने बड़ी प्रसन्नता के साथ राजाको छोड़कर समुद्रदत्त आदि अन्य सेठोंके साथ साथ देवगिरि नामक पर्वतपर वरधर्मगुरुके समीप तप धारण किया और दोनों ही तपकर ब्रह्मलोकके अन्तमें लौकान्तिक देव हुए सो ठीक ही है क्योंकि समयके अनुकूल होनेवाली परिस्थितिसे बुद्धिमानोंको क्या क्या सिद्ध नहीं होता ?
।।७३-७५।।
किसी दूसरे दिन प्रियदत्ता (समुद्रदत्तकी पुत्री और कुबेरकान्तकी स्त्री) ने विपुलमति नामके चारण ऋद्धिधारी महामुनिको नवधा भक्तिपूर्वक दान देकर पुण्य संपादन किया और फिर विनय प्रकटकर उन्हीं मुनिराजसे पूछा कि मेरे तपका समय समीप है या नहीं ! ॥७६७७ ।। अवधिज्ञान ही हैं नेत्र जिनके ऐसे बुद्धिमान् मुनिराजने यह जानकर कि इसका चित्त संतानको चाह रहा है अपने दाहिने हाथकी पांच अंगुली और बायें हाथकी छोटी अंगुली दिखाई और उससे सूचित किया कि पांच पुत्र और एक पुत्री होगी । तथा कालान्तरमें उस प्रियदत्ताने भी पांच पुत्र और एक पुत्री दिखलाई अर्थात् उत्पन्न की ॥७८-७९ ।। किसी समय गुणरूप आभूषणों को धारण करनेवाली, जगत्पाल चक्रवर्तीकी पुत्री, अमितमति और अनन्तमति नाम
१ विचार्य । २ - सन्मानं अ०, प०, स०, इ०, ल० । ३ स्वराष्ट्रपरराष्ट्रमहाधुरम् । ४ आत्मानं राज्ञा मोचयित्वेत्यर्थः । ५ वरधर्मगुरोः समीपे । ६ सुरनाम्नि कस्मिंश्चिद् गिरौ । समुद्रदत्त । ८- परिच्छित्त्या ८० । कालानुरूपेण ज्ञानेन ।
६ कुबेरकान्तप्रिया ।
११ प्रसिद्धे । १२ गणिन्यौ अ०, प०, स०, इ० । गुणिन्यौ ल० ।
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७ कुबेरदत्त१० एकाँ पुत्रीम् ।
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