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महापुराणम्
प्राभातानक कोटोनां निःस्वनः सेनयोः समम् । श्राक्रामतिस्म दिवचक्रम् क्रमेणोच्चरंस्तदा ॥३१२॥ प्रतीच्याऽपि युतश्चन्द्रो मयैवोदेति भास्करः । इति स्नेहादिव प्राची प्रागभावुदयाद्रवेः ॥ ३१३॥ सरसां कमलाक्षिभ्यः प्रबुद्धानां तदा मुदा । निर्ययौ स्वार्थमादाय निद्रेव भ्रमरावली ॥ ३१४ ॥ गतायां स्वेन सङ्कोचं पद्मिन्यां स्वोदये रविः । लक्ष्मीं निजकरेणोच्चैविदधे सा हि मित्रता ॥३१५॥ रक्तः करैः समाश्लिष्य सन्ध्यां सद्यो व्यरज्यत" । वदन्निव रविर्भोगान् पर्यन्त' विरसान् स्फुटम् ॥३१६ ॥ "पर्यष्वञ्जीत् पुरेवैतां स्वां सन्ध्यामिति वेर्ष्यया । रवि 'रक्तमपि स्थित्यं प्राच्यक्षमत "न क्षणम् ॥ शयित्वा वीरशय्यायां निशां नीत्वा नियामिनः । स्नात्वा सन्तपिताशेष दीनानाथवनीपकाः ॥ ३१८ ॥ श्रञ्चित्वा विधिना स्तुत्वा जिनेन्द्रांस्त्रिजगन्नतान् । प्रतिष्ठनायकाः सर्वे परिच्छिद्य रणोन्मुखाः ॥३१ ॥ अरिञ्जयाख्यमारुह्य रथं श्वेताश्वयोजितम् । गृहीत्वा वज्रकाण्डं च दत्तं यच्चक्रिणा द्वयम् ५ ॥३२०॥ बन्दिमागधवृन्देन वन्द्यमानाङकमालिकः । गजध्वजं" समुत्थाप्य जयलक्ष्मीसमुत्सुकः ॥३२१॥ जयो ज्यास्फालनं कुर्वन कृतान्त विकृताकृतिः । द्विपानां "भीषणस्तस्थौ दिशामय्याहरन् मदम् ॥ ३२२ ॥ "उपोदय यशस्कीतिः अर्ककातिरच्युतच्छविः । " कारागारमिवाध्यास्य स्यन्दनं मन्दवाजिनम् ॥ ३२३॥
उसी समय दोनों सेनाओं में साथ साथ उठनेवाले प्रातःकालीन करोड़ों बाजोंके शब्दों ने एक साथ सब दिशाएं भर दीं ।। ३१२|| यद्यपि चन्द्रमा पश्चिम दिशाके साथ है तथापि सूर्य तो मेरे ही साथ उदय होगा इसी प्रेमसे मानो पूर्व दिशा सूर्योदय से पहले ही सुशोभित होने लगी थी ॥ ३१३।। उस समय भ्रमरोंकी पंक्ति तालाबों के फूले हुए ( पक्ष में जागे हुए ) कमलरूपी नेत्रोंसे अपना इष्ट पदार्थ लेकर निद्राके समान बड़ी प्रसन्नताके साथ निकल रही थी ।। ३१४ || कमलिती मेरे अस्त होते ही संकुचित हो गई थी, इसलिये सूर्यने अपना उदय होते ही अपने ही ही किरणरूपी हाथों से उसपर बहुत अच्छी शोभा की थी सो ठीक ही है क्योंकि मित्रता यही कहलाती है ॥३१५॥ रक्त अर्थात् लाल ( पक्ष में प्रेम करनेवाला) सूर्य कर अर्थात् किरणों ( पक्ष में हाथों) से संध्याका आलिंगन कर शीघ्र ही विरक्त अर्थात् लालिमारहित (पक्षमें रागहीन) हो गया था सो मानो वह यही कह रहा था कि ये भोग अन्त समयमें नीरस होते हैं । । ३१६ ॥ इस सूर्य ने पहले के समान ही अपनी संध्यारूपी स्त्रीका आलिंगन किया है इस ईष्यसेि ही मानो पूर्व दिशाने सूर्यको प्रेमपूर्ण अथवा लाल वर्ण होनेपर भी अपने पास क्षणभर भी नहीं ठहरने दिया था ।। ३१७।। व्रत नियम पालन करनेवाले सेनापतियोंने वीरशय्यापर शयन कर रात्रि व्यतीत की । सबेरे स्नानकर सब दीन, अनाथ तथा याचकों को संतुष्ट किया, त्रिजगद्वन्द्य जिनेन्द्र देवकी विधिपूर्वक पूजाकर स्तुति की और फिर वे अपनी अपनी सेनाका विभागकर युद्धके लिये उत्सुक हो खड़े हो गये ।। ३१८ - ३१९ । बन्दीजन और मागध लोगोंका समूह जिसके नाम के अक्षरों की स्तुति करते हैं, जो विजयलक्ष्मी के लिये उत्सुक हो रहा है, जिसका आकार यमराज के समान विकृत है, जो दिग्गजों के भी मदको हरण करनेवाला है और भयंकर है ऐसा जयकुमार सफेद घोड़ोंसे जुते हुए अरिंजय नामके रथपर सवार होकर और वज्रकाण्ड नामका वह धनुष जो कि पहले चक्रवर्तीने दिया था, लेकर हाथीकी ध्वजाको उड़ाता तथा धनुषकी डोरीका आस्फालन करता हुआ खड़ा हो गया ।। ३२० - ३२२ ।। जिसकी अपकीर्तिका उदय
१ युगपत् । २ सरोवराणाम् । ३ वृद्धौ वृद्धिः क्षये क्षयश्च । ४ अरुणः अनुरक्तश्च । ५ विरक्तोऽभूत् । ६ अवसाने निस्साराणि इति वदन्ति वेति सम्बन्धः । ७ आलिलिङग । ८ अनुरक्तम् । निवसनाय । १० पूर्वादिक् । ११ न सहते स्म । १२ शयनं कृत्वा । १३ नियमवन्तः । १४ तिष्ठन्ति १५ रथवज्ज्रकाण्डचापद्वयम् । पुरा ल० । १६ स्तूयमान । १७ गजाङकितध्वजम् । १८ भयङ्करः । १६ उदयप्राप्तापकीर्तिः । २० बन्धनालयम् ।
स्म ।
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