Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 453
________________ अशुच्यवभिपुन्धनैः ४४२ महापुराणम् प्रादावशुच्युपादानम् प्रशुच्यवयवात्मकम् । विश्वाशुचिकरं पापं दुःखदुश्चेष्टितालयम् ॥१६॥ निरन्तरश्रवोत्कोयनवद्वारशरीरकम् । कृमिपुञ्जचिताभस्मविष्ठानिष्टं विनश्वरम् ॥१०॥ "तवध्युष्य जडो जन्तुस्तन्तः पञ्चेन्द्रियाग्निभिः । विश्वेन्धनैः कुलिङगीव भूयोऽयात् कुत्सितां गतिम्॥ साऽऽशाखनिः किलात्रैव यत्र विश्वमणूपमम् । तां पुपूर्षुः१३ किलाद्याहं धनः सङख्यातिबन्धनः ॥ "यदादाय भवेज्जन्मी यम्मुक्त्वा मुक्तिभागयम् । तद्याथात्म्यमिति ज्ञात्वा कथं पुष्णाति धीधनः॥ हा हतोऽसि चिर जन्तो मोहेनाद्यापि ते यतः। नास्ति कायाशचिज्ञानं तस्यागः क्वाति दुर्लभः॥ दुःखी सुखी सुखी दुःखी दुःखी दु:ख्येव केवलम् । धन्यधन्योऽधनो धन्यो निर्धनो निर्धनः सदा ॥१६॥ एवंविधस्त्रिभिर्जन्तुः ईप्सितानीप्सितश्चिरम्। "चतुर्थ भंगमप्राप्य बम्भमीति भवार्णवे ॥१९६॥ "यां "वष्टययमसौ वष्टि परं वष्टि स चापराम् । साऽपि वष्टयपरं कष्टमनिष्टेष्टपरम्परा ॥१९७॥ होकर इतने दिन तक शरीर, संसार और भोगोंकी असारता नहीं देखी यह बड़े खेदकी बात है ॥१८८॥ प्रथम तो यह शरीर अपवित्र उपादानों (माता-पिताके रज वीर्य) से बना है, फिर इसके सब अवयव अपवित्र हैं, यह सबको अपवित्र करनेवाला है, पापरूप है और दुःख देनेवाली खोटी खोटी चेष्टाओंका घर है ॥१८९॥ इसके नौ द्वारोंसे सदा मल-मूत्र बहा करता है और अन्त में यह विनश्वर शरीर कीड़ोंका समूह, चिताकी राख तथा विष्ठा बनकर नष्ट हो जानेवाला है ॥१९०॥ ऐसे शरीरमें रहकर यह मूर्ख प्राणी, जिनमें संसारके सब पदार्थ ईधन रूप हैं ऐसी पांचों इन्द्रियोंकी अग्नियोंसे तपाया जाकर कुलिंगी जीवके समान फिरसे नीच गतियोंमें पहुंचता है ।।१९१।। जिसमें यह सारा संसार एक परमाणुके समान है ऐसा वह प्रसिद्ध आशारूपी गढ़ा इसी शरीरमें है, इसी आशारूपी गढ़ेको मैं आज थोड़ेसे धनसे पूरा करना चाहता हूं ॥१९२॥ जिस शरीरको लेकर यह जीव जन्म धारण करता है-संसारी बन जाता है और जिसे छोड़कर यह जीव मुक्त हो जाता है इस प्रकार शरीरकी वास्तविकता कर भी बद्धिमान लोग न जाने क्यों उसका भरण-पोषण करते हैं ॥१९३॥ हे जीव, खेद है कि तू मोहकर्मके द्वारा चिरकालसे ठगा गया है, क्योंकि तुझे आजतक भी अपने शरीरकी अपवित्रताका ज्ञान नहीं हो रहा है, जब यह बात है तब अत्यन्त दुर्लभ उसका त्याग भला कहाँ मिल सकता है ॥१९४॥ इस संसारमें जो दुःखी हैं वे सुखी हो जाते हैं, जो सुखी हैं वे दुखी हो जाते हैं और कितने ही दुखी दुखी ही बने रहते हैं इसी प्रकार धनी निर्धन हो जाते हैं, निर्धन धनी हो जाते हैं और कितने ही निर्धन सदा निर्धन ही बने रहते हैं। इस तरह यह जीव जो सुखी है वह सुवी ही रहे और जो धनी है वह धनी ही बना रहे यह चौथा भंग नहीं पाकर केवल ऊपर कहे हुए तीन तरहके भंगोंसे ही संसाररूपी समुद्र में चिरकाल तक भ्रमण करता रहता है । ॥१९५-१९६॥ यह पुरुष जिस स्त्रीको चाहता है वह स्त्री किसी दूसरे पुरुषको चाहती है, जिसको वह चाहती है वह भी किसी अन्य स्त्रीको चाहता है इस प्रकार यह इष्ट अनिष्टकी १ अशुचिशुक्रशोणितमुख्यकारणम् । २ पूतिगन्धित्वम् । ३ कृमीनां पुजः चितायां भस्म विष्ठा पूरीषो निष्ठायामन्ते यस्मिन् तत् । ४ तस्मिन् शरीरे। ५ स्थित्वा । ६ सकलविषयेन्धनः । ७ गच्छेत् । ८ अभिनिवेशाकरः । ६ जन्तावेव। १० आशाखनौ। ११ सकलवस्तु। १२ आशाखनिम् । १३ पूरयितुमिच्छः । १४ गणनाविशेषैः । १५ शरीरम् । १६ तच्छरीरस्य यथास्वरूपम् । १७ पुष्टिनयति । १८ वैराग्योत्पन्नकालेऽपि। १६ शरीरत्यागः । २० कुत्रास्ति । २१ धनवान् । २२ धनरहितः । २३ सुखी सुखीति धनी धनीति चतुर्थभेदम् । २४ स्त्रियम् । २५ वष्टि इच्छति । अयम् पुमान् । २६ अन्यपुरुषम् । २७ अनिष्टवाञ्छासन्ततिः । 'वष्टि योगेच्छयोः' इत्यभिधानात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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