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पश्चचत्वारिंशत्तम पर्व
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यदिष्टं सदनिष्टं स्याद् यदनिष्टं तदिष्यते। इहेष्टानिष्टयोरिष्टा नियमेन न हि स्थितिः ॥१९८॥ . 'स सासा'तत्तदेवैवा'सा स स्यात् सोऽपि तत्पुनः। तत्स स्यात्तत्तदेवात्र चक्रके' वक्रसंक्रमः ॥१६॥ अन्तमस्य विधास्यामि चिन्तयित्वा जिनोदितम् । सन्ततं जन्मकान्तारभ्रान्तौ भीतोऽहमन्तकात् ॥२०॥ भोगोऽयं भोगिनो भोगो भोगिनो भोगिनामकृत् । रतावन्मात्रोऽपिनास्माकंभोगो भोगेष्विति ध्रुवम् ॥ भुज्यते "यः स भोगः स्याद् भुक्तिर्वा भोग" इष्यते। तद्वयं नरकेऽप्यस्ति तस्माद् भोगेषु का रतिः॥२०२॥ भोगास्तुष्णाग्निसंवृद्ध्यै "वीपनीयौषधोपमाः। एभिःप्रवृद्धतृष्णाग्नेः "शान्त्यै चिन्त्यमिहापरम् ॥२०३॥ इत्यतो न सुधीः सद्यो वान्ततृष्णाविषो भृशम् । हेमाङगदं समाहृय "पूज्यपूजापुरस्सरम् ॥२०४॥ अभिषिच्य चलां मत्वा बध्वा पट्टेन वाञ्चलम् । लक्ष्मी समर्थ गत्वोच्चः अभ्यासं वृषभेशितुः ॥२०५॥ प्रवज्य बहुभिः सार्द्ध मूर्धन्यैः स ससुप्रभः । क्रमाच्छणी समारुह्य कैवल्यमुदपादयत् ॥२०६॥ अथ जन्मान्तरापातमहास्नेहातिनिर्भरः। सुलोचनाननानन्दनेन्दुबिम्बात् सुतां३ सुधाम् ॥२०७॥
२५उन्मीलनीलनीरजराजिभिर्लोकनैः पिबन् । पूरयन् श्रोत्रपात्राभ्यां "तद्गी!तरसायनम् ॥२०॥ परंपरा बहुत ही दुःख देनेवाली है ।।१९७।। जो इष्ट है वह अनिष्ट हो जाता है और जो अनिष्ट है वह इष्ट हो जाता है, इस प्रकार संसारमें इष्ट अनिष्टकी स्थिति किसी एक स्थानपर नियमित नहीं रहती ? ॥१९८॥ आजका पुरुष अगले जन्ममें स्त्री हो जाता है, स्त्री नपुंसक हो जाती है, नपुंसक स्त्री हो जाता है, वही स्त्री फिर पुरुष हो जाता है, वह पुरुष भी नपुंसक हो जाता है, वह नपुंसक फिर पुरुष हो जाता है अथवा नपुंसक नपुसक ही बना रहता है, इस प्रकार इस चक्र बड़ा टेढ़ा संक्रमण करना पड़ता है ॥१९९।। इसलिये श्रीजिनेन्द्रदेवके कहे हुए वचनोंका चिन्तवन कर मैं अवश्य ही इस संसारका अन्त करूंगा क्योंकि निरन्तर संसाररूपी वनके भीतर परिभ्रमण करने में मैं अब यमराजसे डर गया हूं ॥२००॥ भोग करनेवाले मनुष्यों के ये भोग ठीक सर्पके फणाके समान हैं और भोगनेवाले जीवको भोगी नाम देनेवाले हैं। तथा इतना सब होनेपर भी उन भोगोंमेंसे एक भोग भी हमारा नहीं है यह निश्चय है ॥२०१॥ जिसका भोग किया जाता है उसे भोग कहते हैं अथवा उपभोग किया जाना भोग कहलाता है वे दोनों प्रकारके भोग नरक में भी हैं इसलिये उन भोगोंमें क्या प्रेम करना है ? ॥२०२।। जिस प्रकार औषधसे पेटकी अग्नि प्रदीप्त हो जाती है उसी प्रकार इन भोगोंसे भी तृष्णारूपी अग्नि प्रदीप्त हो उठती है अतः इन भोगोंसे बढ़ी हुई तृष्णारूपी अग्निकी शान्तिके लिये कोई दूसरा ही उपाय सोचना चाहिये ॥२०३।। इस प्रकार तृष्णारूपी विषको उगल देनेवाले बुद्धिमान राजा अकम्पनने बहत शीघ्र हेमाङ्गदको बलाकर पूज्य-परमेष्ठियोंकी पूजापूर्वक उसका राज्याभिषेक किया, लक्ष्मी को चंचल समझ पट्टबन्धसे बांधकर उसे अचल बनाया और हेमांगदको सौंपकर श्रीभगवान् वृषभदेवके समीप जाकर अनेक राजाओं और रानी सुप्रभाके साथ दीक्षा धारण की तथा अनुक्रमसे श्रेणियां चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न किया ॥२०४-२०६॥
अयानन्तर अन्य जन्मसे आये हुए बहुत भारी स्नेहसे भरा हुआ जयकुमार खुले हुए नीलकमलोंके समान सुशोभित होनेवाले अपने नेत्रोंसे सुलोचनाके मुखरूपी आनन्ददायी
१ इष्टं भवति । २ स पुमान् । ३ सा स्त्री स्यात् । ४ तत् नपुंसकम् । ५ एषा स्त्री स्यात् । ६ तत् नपुंसकम् । ७ तदेव पुनपुंसकमेव स्यात् । ८ चक्रवदावर्तमानसंसारे । ६ संसारस्य । १० सर्पस्य । ११ भोगीति नामकृत् । भोगीति नामकरः । सर्पनामकृदित्यर्थः । १२ भोगीति नामकृन्मात्रोऽपि । १३ पदार्थः । १४ पदार्थानुभवनक्रिया । १५ दीपनहेतुः । १६ भोगैः । १७ उपशान्तिकारणम् । १८ परमेष्ठीपूजापूर्वकम् । १६ निश्चलं यथा भवति तथा। पट्टेन बद्ध्वा वा निबन्धनं कृत्वेव समर्थेति सम्बन्धः । २० क्षत्रियः । २१ सुप्रभादेवीसहितः । २२ आनन्दहेतुचन्द्र । २३ निसृताम् । २४ कान्तिम् । २५ विकसन्नीलोत्पलवद्विराजमानैः । २६ नेत्रैः । -र्लोचनैः तं० विहाय सर्वत्र । २७ सुलोचनावचनरूपगीतम् ।
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