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पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व
४४१ तूर्यमङगलनि?बैः पुरन्दर इवापरः । सुलोचनामिवान्यां स्वां प्रविश्य नगरों जयः ॥१७७॥ राजगेहं महानन्दविधायि विविधिभिः। पावसत् कान्तया सार्द्ध नगर्या हृदयं मुदा ॥१७॥ तिथ्यादिपञ्चभिः शुद्धः शुद्ध लग्ने महोत्सवम् । सर्वसन्तोषणं कृत्वा जिनपूजापुरःसरम् ॥१७॥ विश्वमङगलसम्पत्त्या स्वोचितासनसुस्थिताम् । हेमाङगदादिसान्निध्ये राजा जातमहोदयः ॥१८०॥ सुलोचनां महादेवीं पट्टबन्धं 'व्यवान्मुदा । स्त्रीषु सञ्चितपुण्यासु पत्युरेतावती रतिः ॥१८॥ हेमाङगवं 'ससोदर्यम् उपचर्य ससम्भमम् । पुरोभूय स्वयं सर्वैर्भाग्यः 'प्राघूर्णकोचितैः॥१८२॥ नत्यगीतसुखालापरणारोहणादिभिः । वनवापीसरःक्रीडाकन्दुकादिविनोदनैः॥१८३॥ 'महानि स्थापयित्वैवं सखेन कतिचित्कृती। तदीप्सितगजाश्यास्त्रगणिकाभूषणाविकम् ॥१८४॥ प्रदाय परिवारं च तोषयित्वा यथोचितम् । चतुविधेन कोशेन "तत्पुरों 'तमजोगमत्३ ॥१८॥ सुखप्रमाणः सम्प्राप्य दृष्ट्वा भूपं ससुप्रभम् । प्रणम्यालादयन्नस्थात् स वधूवरवार्तया ॥१८६॥ सुखं काले गलत्येवम् अकम्पनमहीपतिः। तदा संचिन्तयामास विरक्तः कामभोगयोः॥१८७॥
अहो मया प्रमत्तेन विषयान्धेन नेक्षिता । कष्टं शरीरसंसारभोगनिस्सारता चिरम् ॥१८८॥ वाले पुरोहित, सौभाग्यवती स्त्रियां, मंत्री और प्रसिद्ध प्रसिद्ध सेठ लोग सामने खड़े होकर जिसे शेषाक्षत दे रहे हैं ऐसे उस जयकुमारने तुरही आदि माङ्गलिक बाजोंके शब्दोंके साथ साथ दूसरे इन्द्र के समान अपनी उस हस्तिनागपुरीमें प्रवेश कर अनेक प्रकारकी विभूतियोंसे बहुत भारी आनन्द देनेवाले तथा उस नगरीके हृदयके समान अपने राजभवन में प्रिया सुलोचनाके साथ साथ बड़े आनन्दसे निवास किया ॥१७०-१७८।।।
तदनन्तर बड़े भारी अभ्युदयको धारण करनेवाले महाराज जयकुमारने शुद्ध तिथि, शुद्ध नक्षत्र आदि पांचों बातोंसे निर्दोष लग्नमें बड़ा भारी उत्सव कराकर सबको संतुष्ट किया और फिर जिनपूजापूर्वक सब मंगल-संपदाओंके साथ साथ हेमांगद आदि भाइयोंके सामने
पोग्य आसनपर बैठी हई सलोचनाको बडे हर्षसे पदबन्ध बांधा अर्थात पदरानी बनाया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यसंचय करनेवाली स्त्रियोंमें पतिका ऐसा ही प्रेम होता है ॥१७९१८१॥ उसके बाद कुशल जयकुमारने स्वयं आगे होकर पाहुनोंके योग्य सब प्रकारके भोगोपभोगोंसे, नृत्य, गीत और सुख देनेवाले वचनोंसे, हाथी आदिकी सवारीसे, वन, वापिका, तालाब आदिकी क्रीड़ाओंसे और गेंद आदिके खेलोंसे प्रसन्नतापूर्वक हेमाङ्गद और उनके भाइयोंकी सेवा की, कुछ दिन तक उन्हें बड़े सुखसे रक्खा और फिर उनको अच्छे लगनेवाले हाथी, घोड़े, अस्त्र, गणिका तथा आभूषण आदि देकर उनके परिवारके लोगोंको यथायोग्य संतुष्ट किया और फिर रत्न, सोना, चांदी तथा रुपये-पैसे आदि चारों प्रकारका खजाना साथ देकर उन्हें उनके नगर बनारसको विदा किया। ।१८२-१८५।। सखपूर्वक कितने ही पड़ाव चलकर वे हेमांगद आदि बनारस पहुंचे और माता सुप्रभाके साथ राजा अकंपनके दर्शन कर उन्हें प्रणाम किया और जयकुमार तथा सुलोचनाकी बातचीतसे माता-पिताको आनन्दित करते हुए रहने लगे ॥१८६॥
___ इस प्रकार सुखपूर्वक बहुत सा समय व्यतीत होनेपर एक दिन महाराज अकंपन कामभोगोंसे विरक्त होकर इस प्रकार सोचने लगे ॥१८७॥ कि मुझ प्रमादीने विषयोंसे अन्धा
१ निवसति स्म। २ नगरीजनचिते इत्यर्थः । ३ तिथिग्रहनक्षत्रयोगकरणः । तिथिनक्षत्रहोरावारमुहूर्तेर्वा । ४ महोत्सवे ल०। ५ चकार । ६ ससानुजम् । ७ अग्रे भूत्वा । पुरस्कृत्य वा । ८ अतिथि । ६ दिनानि । १० रत्नसुवर्णरजतव्यवहारयोग्यनाणकम् इति चतुर्विधेन । ११ वाराणसीम् । १२ हेमाङगदम् । १३ गमयति स्म। १४ अकम्पनम् । १५ सुप्रभादेवीसहितम् ।
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