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पञ्चचत्वारिंशचमं पर्व
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तत् (तं ) प्राप्य सिन्धुरं रुध्वा स राजद्वारि राजकम्' । विसर्ज्योच्चैः प्रविश्यान्तः प्रवतीर्य 'निषाद्य तम् राजा सुलोचनां चावरोप्य स्वभुजलम्बिनीम् । निविश्य स्वोचिते स्थाने मृदुशय्यातले सुखम् ॥ ११०॥ तत्कालोचितवृत्तज्ञः प्रियां सन्तर्पयन् प्रियैः । स्नानभोजनवाग्वाद्यगीतनृत्यविनोदनः ॥ १११ ॥ नीत्वा रात्रि सुखं तत्र "प्रत्याय्य प्रत्ययं" स्थितेः । तां निवेश्य समाश्वास्य हेमाङ्गदपुरस्सरान् ॥ ११२ ॥ नियोज्य स्वानुजान् सर्वान् सम्यक्कटकरक्षणे । प्राप्तः कतिपयैरेव ' प्रत्ययोध्यमियाय सः ॥ ११३ ॥ अर्कीदिभिः प्रष्ठैः प्रत्यागत्य प्रतीक्षितः । सस्नेहं सावरं भूयः कुमारेणालपन् पुरीम् ॥ ११४ ॥ सानुरागान् स्वयं रागात् प्राविशद्वा विशाम्पतिः । न पूजयन्ति के वाऽन्ये पुरुषं राजपूजितम् ॥११५॥ इन्द्रो वेभाव बहिर्द्वाराज्जिनस्योत्तीर्य भूपतेः । " सभागेहं समासाद्य मणिकुट्टिमभूतलम् ॥ ११६ ॥ मध्ये तस्य स्फुरद्रत्नखचितस्तम्भसम्भूते । विचित्रनेत्र विन्यस्तसद्वितानविराजिते ॥११७॥ मणिमुक्ताफलप्रो" तलम्बलम्बूषभूषणे" । परार्ध्यरत्नभाजालजटिले मणिमण्डपे" ॥११८॥ विधुं ज्योतिर्गणेनेव राजकेन विराजितम् । स्वकीर्ति निर्मलैर्वीज्यमानं "चभर जन्मभिः ॥ ११६ ॥
बनाया गया है ऐसा वह सेनाका आवास ( पड़ाव ) इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानो स्वर्गका दूसरा आवास ही हो || १०८ || जयकुमारने अपने डेरेके पास जाकर उसके बड़े दरवाजेके समीप ही अपना हाथी रोका, वहीं सब राजाओंको विदा किया फिर ऊंचे तम्बूके भीतर प्रवेश कर हाथी को बैठाया - स्वयं उतरे, अपनी भुजाओं का सहारा लेनेवाली सुलोचनाको भी उतारा और अपने योग्य स्थान में कोमल शय्यातलपर सुखसे विराजमान हुए। फिर उस समयके योग्य समाचारोंको जाननेवाले जयकुमारने स्नान, भोजन, वार्तालाप, बाजे, गीत, नृत्य आदि मनोहर विनोदों से सुलोचनाको संतुष्ट किया, रात्रि वहीं सुखसे बिताई, वहां ठहरनेका कारण बतलाया, उसे समझा बुझाकर वहीं पर रक्खा, हेमांगद आदि सुलोचनाके भाइयोंको भी वह रक्खा, अपने सब छोटे भाइयोंको अच्छी तरह सेनाकी रक्षा करनेसें नियुक्त किया और फिर कुछ आप्त पुरुषों के साथ अयोध्याकी ओर गमन किया ।। १०९-११३॥ अयोध्या पहुंचने पर अकीर्ति आदि अच्छे अच्छे पुरुषोंने सामने आकर जिसका स्वागत किया है, तथा जो बड़े स्नेह और आदर के साथ अर्ककीर्ति से वार्तालाप कर रहा है ऐसे राजा जयकुमारने अनुराग करनेवालोंके साथ साथ बड़े प्रेमसे अयोध्यापुरी में प्रवेश किया सो ठीक ही है क्योंकि अन्य ऐसे पुरुष कौन हैं जो राजमान्य पुरुषकी पूजा न करें ।। ११४- ११५ ॥ जिस प्रकार इन्द्र समवसरणके बाह्य दरवाजेपर पहुंचकर हाथीसे उतरता है उसी प्रकार जयकुमार भी राजभवनके बाह्य दरवाजेपर पहुंचकर हाथी से उतरा और सभागृहमें पहुंचा । उस सभागृहकी जमीन मणियों जड़ी हुई थी. उसके मध्यमें एक रत्नमण्डप था जो कि देदीप्यमान रत्नोंसे जड़े हुए खंभोंसे भरा हुआ था, अनेक प्रकारके रेशमी वस्त्रोंके तने हुए चंदेवोंसे सुशोभित था, मणियों और मोतियों से गुथे हुए लम्बे लम्बे फन्नूस रूप आभूषणोंसे युक्त था, और बहुमूल्य रत्नोंकी कान्तिके जालसे व्याप्त था। जिस प्रकार उदयाचलपर सूर्य सुशोभित होता है उसी प्रकार उस रन्नमण्डपमें ऊंचे सिंहासनपर बैठे हुए महाराज भरत सुशोभित हो रहे थे। जिस प्रकार ज्योतिषी देवों के समूहसे चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी प्रकार महाराज भरत भी अनेक राजाओं से सुशोभित हो रहे थे, उनपर अपनी कीर्तिके समान निर्मल चमर ढुलाये जा रहे थे, इन्द्रके
१ राजसमूहम् । २ उपविश्य । ३ तं गजम् । ४ प्रतिबोध्य । ५ कारणम् । ६ अयोध्यां प्रति । ७ मुख्यैः । पूजितः । ६ चक्रवर्तीव । १० समवसरणमिव भूपतेः सभागृहमिति सम्बन्धः | ११ सभागृहस्य । १२ पटवस्त्रकृत । १३ खचित । १४ दाम । १५ रत्नमण्डपे ल० । १६ चामरैः ।
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