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महापुराणम् भवद्भिर्भावितश्वयं मा मदीया दिदृक्षवः । इति माम समभ्यत्य' 'प्रस्थानार्थमबबधत् ॥१८॥ तबुध्वा नाथवंशेशः किञ्चिदासीत् ससंभ्रमः । जये जिगमिषौ स्वस्मान्न स्यात् कस्याकुलं मनः ॥ विचार्य कार्यपर्यायं तथास्त्वित्याह तं न पः । स्नेहानतिनी नैति० दीपिका वा धियं सुधीः ॥१०॥ प्रादात् प्रागेव सर्वस्वं तस्मै दत्तसुलोचनः । तथापि लौकिकाचारं परिपालयितुं प्रभुः ॥१०॥ दत्वा कोशादि सर्वस्वं स्वीकृत्य प्रीतिमात्मनः। अनुगम्य स्वयं दूरं शुभेऽहनि वधूवरम् ॥१०२॥ कथं कथमपि त्यक्त्वा स "सजानिर्जनाग्रणी:५ । व्यावर्तत ततः शोकी "तुग्वियोगो हि दुःसहः ॥१०३॥ १८विजयाद्धं समारुह्य जयोऽपि ससुलोचनः । प्रारूढसामः सर्वैः स्वानुजैविजयादिभिः ॥१०४॥ हेमाङगदकुमारेण सानुजेन च सोत्सवः । प्रवर्तयन् कथाः पथ्याः परिहास मनोहराः ॥१०॥ वृतः शशीव नक्षत्रैः अनुमङग२० ययौ शनैः । इला सञ्चालयन् प्राग्वार श्रीमान् स जयसाधनः ॥१०६॥ स्कन्धावारं२ यथास्थान पारगडगं२३ न्यवोविशत् । वीक्ष्य कक्षपुटत्वेन प्रशास्ता "शास्त्रवित्तदा ॥
२५हटत्पटकटीकोटिनिकटाटोपनिर्गमः । बभासे शिबिरावासः स्वर्गवास इवापरः ॥१०॥ भेजे हुए पत्रके गूढ़ अर्थसे प्रेरित हो रहा है, बुद्धिमान् है, और शीघ्रसे शीघ्र अपने स्थानपर पहुंचनेकी इच्छा कर रहा है ऐसे जयकुमारने मामा (श्वसुर) के पास जाकर अपने जानेकी सूचना दी कि हे माम, आपने जिसका ऐश्वर्य बढ़ाया है ऐसे मुझे मेरी प्रजा देखना चाहती है। ॥९७-९८॥ यह जानकर नाथवंशका स्वामी अकंपन कुछ घबड़ाया सो ठीक ही है क्योंकि अपनेसे जय (जयकुमार अथवा विजय) के जानेकी इच्छा करनेपर किसका मन व्याकुल नहीं होता है ? ॥९९॥ तदनन्तर कार्योंका पूर्वापर विचारकर राजा अकंपनने जयकुमारसे 'तथास्तु' कहा सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् मनुष्य दीपिकाके समान स्नेह (तेल अथवा प्रेम) का अनुवर्तन करनेवाली बुद्धिको नहीं प्राप्त होते हैं। भावार्थ-बुद्धिमान् मनुष्य स्नेहके पीछे बद्धिको नहीं छोड़ते हैं ॥१००। यद्यपि महाराज अकंपन, सलोचनाको देकर पहले ही जयकुमारको सब कुछ दे चुके थे तथापि लौकिक व्यवहार पालन करने के लिये अपने प्रेमके अनुसार खजाना आदि सब कुछ देकर उन्होंने किसी शुभ दिनमें वधू-वरको बिदा किया। सब मनुष्योंमें श्रेष्ठ महाराज अकंपन अपनी पत्नी सहित कुछ दूरतक तो स्वयं उन दोनोंके साथ साथ गये फिर जिस किसी तरह छोड़कर शोक करते हुए वहांसे वापिस लौट आये सो ठीक ही है क्योंकि संतानका वियोग बड़े दुःखसे सहा जाता है ॥१०१-१०३॥ जयकुमार भी सुलोचना सहित विजया नामके हाथीपर सवार होकर अन्य अन्य हाथियोंपर बैठे हुए विजय आदि अपने सब छोटे भाइयों तथा लघु सहोदरोंसे युक्त हेमाङ्गदकुमारके साथ बड़े उत्सवसे मार्गमें कहने योग्य हंसी विनोदकी मनोहर कथाएं कहता हआ और पथिवीको हिलाता हआ नक्षत्रोंसे घिरे हए चन्द्रमाकी तरह गंगाके किनारे धीरे धीरे इस प्रकार चला जिस प्रकार कि पहले दिग्विजयके समय सेनाके साथ साथ चला था ॥१०४-१०६।। शास्त्रोंके जाननेवाले और सबपर शासन करनेवाले जयकुमारने उस समय गंगाके किनारे यथायोग्य स्थानपर घासवाली जमीन देखकर सेनाके डेरे कराये ।।१०७।। देदीप्यमान कपड़ोंके करोड़ों तम्बुओंके समीप ही जिसमें आने जानेका मार्ग
१ अस्मदीयाः बन्धुमित्रादयः । २ द्रष्टुमिच्छवः । ३ श्वसुरम् । ४ सम्प्राप्य । ५ गमनप्रयोजनम् । ६ ज्ञापयति स्म । ७ अकम्पनः । ८ विजये इति ध्वनिः। ६ कार्यक्रमम् । १० न गच्छति किम् । ११ शोभना धीर्यस्य सः। १२ ददाति स्म। १३ स्वस्य प्रीतिमेकामेव स्वीकृत्य । १४ स्त्रीसहितः । १५ अकम्पनः । १६ व्याधुटितवान् । १७ पुत्रवियोगः । १८ विजयार्द्धगजम् । १६ पथि हिताः । २० गङगामनु । २१ पूर्वदिग्विजये यथा । २२ शिबिरम्। २३ गंगातीरे। २४ जयकुमारः । २५ शुम्भद्वस्त्रकुटीसमूहासन्नविस्तृतनिर्गमः । २६ रराज।
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