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महापुराणम् अनालपन्तीमालाप्य लोकमानो विलोकिनीम् । अस्पृशन्ती समास्पृश्य व्यधान् व्रीडाविलोपनम् ॥७८॥ कृतो भवान्तराबद्ध तत्स्नेहब'लशालिना । सुलोचनायाः कौरव्यः काम कामेन कामुकः ॥७॥ सुलोचनामनोवृत्ती रागामृतकरोद्धरा' । क्रमाच्चचाल वेलेव कामनाममहाम्बुधेः॥५०॥ मुकुले वा मुखे चक्रे विकासोऽस्याः क्रमात्पदम् । 'प्राक्रान्तशूर्पकारातिग्रहानक्षरसूचनः ॥८१॥ "सखीमुखानि संवीक्ष्य जञ्जपित्वा दिशामसौ । स्वरं हसितुमारब्ध गृहीतमदनमहा ॥२॥ १०सितासितासितालोलकटाक्षेक्षणतोमरः । जयं तदा जितानडगं कृत्वानङगप्रतिष्कशम् ॥३॥ ससाध्वसा सलज्जा सा विव्याध विविधर्मनाक । अनालोकनबेलायाम् अति सन्धित्सव तम् ॥५४॥ न भुजगेन सन्दष्टा नापि संसेवितासवा । न श्रमेण समाकान्ता तथापि स्विधति स्म सा ॥८॥ स्खलन्ति स्म "कलालापाश्चकम्पे हृदयं भृशम् । चलान्यालोकितान्यासन्नवशे वात्मनश्च५ सा ॥८६॥ प्रक्षालितेव लज्जाऽगात् सुदत्याः स्वेदवारिभिः । वागिन्धनळदीपिष्ट विचित्रश्चित्तजोऽनलः ॥७॥
सावत्रपा भयं तावत्तावत्कृत्यविचारणा। तावदेव धुतिर्यावज्जम्भते न स्मरज्वरः ॥८॥ उससे वार्तालाप करता था, अपनी ओर देखनेपर उसे देखता था, और स्पर्श न करनेपर उसका
था। इस प्रकार यह सब करते हए जयकुमारने सलोचनाकी लज्जा दूर की थी ॥७७-७८।। पूर्व पर्याय में बंधे हुए स्नेहरूपी बलसे शोभमान कामदेवने इच्छानुसार जयकुमारको सुलोचनाका सेवक बना लिया था ॥७९॥ रागरूपी चन्द्रमाके सम्बन्धसे बढ़ी हुई, कामदेव नामक महासागरकी वेलाके समान सुलोचनाके मनकी वृत्ति क्रम क्रमसे चंचल हो रही थी ॥८॥ सब शरीरमें घुसे हुए कामदेवरूपी पिशाचके द्वारा बिना कुछ बोले ही जिसकी सूचना हो रही है ऐसे विकासने सुलोचनाके मुखरूपी मुकुलपर धीरे धीरे अपना स्थान जमा लिया था ॥८१॥ कामरूपी पिशाचको ग्रहण करनेवाली सुलोचना सखियोंके मुख देखकर दिशाओंसे बातचीत कर अर्थात् निरर्थक वचन बोलकर इच्छानुसार हंसने लगी ॥८२।। उस समय भय और लज्जा सहित सुलोचना कामदेवको जीतनेवाले जयकुमारको न देखने योग्य समयमें मानो ठगनेकी इच्छासे ही कामदेवको अपना सहायक बनाकर सफेद काले इन दोनों रंगोंसे मिले हुए चंचल कटाक्षोंसे भरी हुई दृष्टिरूपी अनेक तोमर नामके हथियारोंसे धीरे धीरे मार रही थी ।।८३।। जब जयकुमार उसकी ओर नहीं देखता था उस समय भी वह सफेद, काले और चंचल कटाक्षोंसे भरी दृष्टिसे उसे देखती रहती थी और उससे ऐसा मालूम होता था मानो यह उसे ठगना ही चाहती है ॥८४॥ उस समय उसे न तो सर्पने काटा था, न उसने मद्य ही पिया था, और न परिश्रमसे ही वह आक्रान्त थी तथापि वह पसीनेसे तर हो रही थी ॥८५॥ उसके मधुर भाषण स्खलित हो रहे थे, हृदय अत्यन्त कँप रहा था, दृष्टि चंचल हो
और वह ऐसी जान पडती थी मानो अपने वशमें ही न हो ॥८६॥ सन्दर दांतोंवाली सुलोचनाकी लज्जा इस प्रकार नष्ट हो गई थी मानो उसके पसीनारूपी जलसे धुल ही गई हो और कामदेवरूपी विचित्र अग्नि वचनरूपी ईधनसे ही मानो खूब प्रज्वलित हो रही थी ॥८७॥ जबतक कामदेवरूपी ज्वर नहीं बढ़ता है तबतक ही लज्जा रहती है तबतक ही भय रहता है, तब तक ही करने योग्य कार्यका विचार रहता है और तब तक ही धैर्य रहता है ॥८८॥
१ सामर्थ्य । २ अत्यर्थम् । ३ इच्छुः । ४ अनुरागचन्द्रेणोत्कटा। ५ स्थानम् । ६ प्राप्तकामग्रहमक्षरेण विना सूचकः । ७ सहचरी। ८ निरर्थकादिदोषदुष्टमुक्त्वा । ९ उपक्रान्तवती । १० श्वेतकृष्णसंबद्ध । ११ सहायम् । १२ वञ्चनेच्छया । १३ स्वदवती बभूव । १४ मनोज्ञवचनानि । • १५ स्वस्य पराधीनेव अथवा आत्मनः वशे अधीने न वा नासीदिति । १६ चित्तजानल: अ०, ५०, इ०, स०, ल०।
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