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महापुराणम् तरन्त' एकराकारं मध्येहदमिभाधिपम् । देवी कालीति पूर्वोक्ता सरय्वाः' सागमे ऽग्रहीत् ॥१४४॥ नक्राकृत्या स्वदेशस्थः क्षुद्रोऽपि महतां बली। दृष्ट्वा गजं निमज्जन्तं प्रत्यागत्य तट स्थिताः॥१४५॥. ससंभ्रमं सहापेतुः ह्रदं हेमाङगदादयः । सुलोचनाऽपि तान्वीक्ष्य कृतपञ्चनमस्कृतिः ॥१४६॥ मन्त्रमूर्तीन समाधाय हृदय भक्तितोऽर्हतः। उपसर्गापसर्गान्तं त्यक्ताहारशरीरिका ॥१४७॥ प्राविशद् बहुभिः सार्व गङगां गडगेव देवता । गङगापातप्रतिष्ठानगङगाकुटाधिदेवता ॥१४८॥ विबुध्यासनकम्पेन कृतज्ञाऽऽगत्य सत्वरम् । एतदानयत्तटं सर्वान् सन्तयं खलकालिकाम् ॥१४६।। स्वयमागत्य केनात्र रक्षन्ति कृतपुण्यकान् । गङगातटे विकृत्याशु भवनं सर्वसम्पदा ॥१५०॥ मणिपीठे समास्थाप्य पूजयित्वा सुलोचनाम् । तव दत्तनमस्काराज्जज्ञे" गङगाधिदेवता ॥१५॥ त्वत्प्रसादादिदं सर्वम् "अवरुद्धामरेशिनः । तयेत्युक्ते जयोऽप्येतत् किमित्याह सुलोचनाम् ॥१५२॥
उपविन्ध्याद्रि" विख्यातो विन्ध्यपुर्यामभूद विभः। विन्ध्यकेतुःप्रिया तस्य प्रियङमुश्रीस्तयोः सुता ॥१५३॥ वह हाथी पानीमें चलने लगा, उस समय उसकी संडका अग्रभाग ऊंचा उठा हुआ था, दांत चमक रहे थे, गंडस्थल पानीके ऊपर था और आकार मगरके समान जान पड़ता था, इस प्रकार तैरता हुआ हाथी एक गढ़ेके बीच जा पहुंचा । उसी समय दूसरे सर्पके साथ समागम करते समय जिस सर्पिणीको पहले जयकुमारके सेवकोंने मारा था और जो मरकर काली देवी हुई थी उसने मगरका रूप धरकर जहां सरय गंगा नदीसे मिलती है उस हाथीको पकड़ लिया सो ठीक ही है क्योंकि अपने देशमें रहनेवाला क्षुद्र भी बड़ों बड़ोंसे बलवान् हो जाता है। हाथी को डूबता हुआ देखकर कितने ही लोग लौटकर किनारेपर खड़े हो गये परन्तु हेमाङ्गद आदि घबड़ाकर उसी गढे में एक साथ घुसने लगे। सलोचनाने भी उन सबको गढ़ेमें घुसते देख पंच नमस्कार मंत्रका स्मरण किया, उसने मन्त्रकी मूर्तिस्वरूप अर्हन्त भगवान्को बड़ी भक्तिसे अपने हृदयमें धारण किया और उपसर्गकी समाप्ति तक आहार तथा शरीरका त्याग कर दिया ॥१४२-१४७॥ सुलोचना भी अनेक सखियोंके साथ गंगामें घुस रही थी और उस समय ऐसी जान पड़ती थी मानो गङ्गादेवी ही अनेक सखियोंके साथ गंगा नदीमें प्रवेश कर रही हो। इतने में ही गंगाप्रपात कुण्डके गंगाकूटपर रहनेवाली गंगादेवीने आसन कंपायमान होनेसे सब समाचार जान लिया और किये हुए उपकारको माननेवाली वह देवी बहुत शीघ्र आकर दुष्ट कालिका देवीको डाँटकर उन सबको किनारेपर ले आई ॥१४८-१४९॥ सो ठीक ही है क्योंकि इस संसारमें ऐसे कौन हैं जो पुण्य करनेवालोंकी स्वयं आकर रक्षा न करें। तदनन्तर उस देवीने गंगा नदी के किनारेपर बहुत शीघ्र अपनी विक्रिया द्वारा सब सम्पदाओंसे सुशोभित एक भवन बनाया, उसमें मणिमय सिंहासनपर सुलोचनाको बैठाकर उसकी पूजा की और कहा कि तुम्हारे दिये हुए नमस्कार मंत्रसे ही मैं गंगाकी अधिष्ठात्री देवी हुई हं, और सौधर्मेन्द्रकी नियोगिनी भी हूं, यह सब तेरे ही प्रसादसे हुआ है। गंगादेवीके इतना कह चुकनेपर जयकुमारने भी सुलोचनासे पूछा कि यह क्या बात है ? ॥१५०-१५२॥ सुलोचना कहने लगी कि विन्ध्याचल पर्वतके समी। विन्ध्यपुरी नामकी नगरी में विन्ध्यकेतु नामका एक प्रसिद्ध
१ तरतीति तरन् तम् । २ हृदस्य मध्ये। ३ पूर्वस्मिन् भवे जयेन सह वने धर्म श्रुतवत्या नाग्या सह स्थितविजातीयसहचरी। ४ सरयूनद्याः । ५ गङ्गाप्रदेशस्थाने। ६ कुम्भीराकारेण । 'नत्रस्तु कुम्भीरः.' इत्यभिधानात् । ७ अभिमुखमागत्य। ८ ह्ररे प्रविष्टवन्तः। ६ उपसर्गावसानपर्यन्तम् । १० गङगापतनकुण्डस्थान । ११ ताना-ल०, इ०, अ०, स०, प० । १२ निर्माय । १३ त्वया वितीर्णपञ्चनमस्कारपदात् । १४ अभूवम् । १५ विलासिनी (नियोगिनीति यावत्)। १६ गङगादेव्या । १७ जयकुमारोऽप्येतत् किमिति पुष्टवान् । १८ विन्ध्याचलसमीपे ।
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