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महापुराणम्
मार्गाश्चिरन्तनान् येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नूतनान् सन्तः सभिः पूज्यास्त एव हि ॥५५॥ न चक्रेण न रत्नश्च शेषेर्न निधिभिस्तथा। बलेन न षडडगेन नापि पुत्रर्मया च न ॥५६॥ तदेतत् सार्वभौमत्वं जयेनैकेन केवलम् । सर्वत्र शौर्यकार्येष तेनैव विजयो मम ॥५७॥ म्लेच्छराजान् विनिजित्य नाभिशैले यशोमयम् । मन्नाम स्थापितं तेन किमत्रान्येन केनचित् ॥५॥ अर्कोतिरकोतिं मे कीर्तनीयामकोतिषु । पाशशांकमिहाकार्षीन्मषीमाषमलीमसाम् ॥५६॥ प्रमुना'ऽन्यायवत्मव प्रावर्तीति न केवलम् । इह स्वयं च दण्डचानां प्रथमः परिकल्पितः ॥६॥ प्रभूदयशसो रूपं मत्प्रदीपादिवाञ्जनम् । नार्ककोतिरसौ स्पष्टम् अयशःकीतिरेव हि ॥६॥ जय एव मदादेशाद् ईवृशोऽन्यायवर्तिनः । समीकर्यात्ततस्तेन स साधु बमितो युधि ॥६२॥ सदोषो यदि निर्माह्यो ज्येष्ठपुत्रोऽपि भूभुजा । इति मार्गमहं 'तस्मिन्नद्य वर्तयितुं स्थितः ॥६३॥ अक्षिमाला' किल प्रत्ता तस्म कन्याऽवलेपिने भवद्भिरविचार्येतद् विरूपकमनुष्ठितम् ॥६४॥ पुरस्कृत्यह तामेतां१३ नीतः सोऽपि प्रतीक्ष्यताम् । सकलङकेति किं मूतिः परिह भवेद्विधोः ॥६५॥ उपेक्षितः सदोषोऽपि स्वपुत्रश्चक्रवतिना । इतीदमयशः स्थापि "व्यधायि तवकम्पनः ॥६६॥ इति सन्तोष्य विश्वेशः सौमुख्यं सुमुखं नयन् । हित्वा ज्येष्ठं तुजं तोकम् "प्रकरोन्न्यायमौरसम् ॥६७॥
॥५३-५४॥ इस युगमें भोगभूमिसे छिपे हुए प्राचीन मार्गों को जो नवीन कर देते हैं वे सत्पुरुष ही सज्जनों द्वारा पूज्य माने जाते हैं ॥५५॥ मेरा यह प्रसिद्ध चक्रवर्तीपना न तो चक्ररत्नसे मिला है, न शेष अन्य रत्नोंसे मिला है, न निधियोंसे मिला है, न छह अंगोंवाली सेनासे मिला है, न पुत्रोंसे मिला है और न मुझसे ही मिला है, किन्तु केवल एक जयकुमारसे मिला है क्योंकि शर वीरताके सभी कार्यो में मेरी जीत उसीसे हुई है ॥५६-५७॥ म्लेच्छ राजाओंको जीतकर नाभि पर्वतपर मेरा कीर्तिमय नाम उसीने स्थापित किया था, इस विषय में और किसीने क्या किया है ? ॥५८। इस अर्ककीर्तिने तो अकीतियोंमें गिनने योग्य तथा स्याही और उड़दके समान काली मेरी अकीर्ति जब तक चन्द्रमा है तब तकके लिये संसारभरमें फैला दी ॥५९।। इसने अन्याय का मार्ग चलाया है केवल इतना ही नहीं है। किन्तु संसारसें दण्ड देने योग्य लोगों में अपने आपको मुख्य बना लिया है ॥६०॥ जिस प्रकार दीपकसे काजल उत्पन्न होता है उसी प्रकार यह अकीर्तिरूप मुझसे उत्पन्न हुआ है, यह अर्ककीर्ति नहीं है किन्तु साक्षात् अयशस्कोति है ॥६१॥ मेरी आज्ञासे जयकुमार ही अन्यायमें प्रवृत्ति करनेवाले इस प्रकारके लोगोंको दण्ड देता है इसलिये इसने युद्ध में जो उसे दण्ड दिया है वह अच्छा ही किया है ॥६२॥ और की क्या बात ? यदि बड़ा पुत्र भी अपराधी हो तो राजाको उसे भी दण्ड देना चाहिये यह नीतिका मार्ग अर्ककीर्तिपर चलानेके लिये आज मैं तैयार बैठा हूं।६३॥ आप लोगोंने विचार किये बिना ही उस अभिमानी के लिये अक्षमाला नामकी कन्या दे दी यह बुरा किया है ॥६४॥ अथवा उस प्रसिद्ध अक्षमाला कन्याकी भेंट देकर आपने उस अर्ककीतिको भी पूज्यता प्राप्त करा दी है सो ठीक ही है क्योंकि यह कलंकसहित है यह समझकर क्या चन्द्रमाकी मूर्ति छोड़ी जाती है ? ॥६५॥ परन्तु चक्रवर्तीने अपराध करनेपर भी अपने पुत्रकी उपेक्षा कर दीउसे दण्ड नहीं दिया इस मेरे अपयशको महाराज अकंपनने स्थायी बना दिया है ॥६६॥ इस
१ पुरातनात् पुंसः । २ युगादौ। ३ जयेन । ४ अर्ककीर्तिना। ५ प्रवर्तितम् । ६ दण्डित योग्यानाम् । ७ समदण्डं कुर्यात् । ८ अर्ककीतौं । अक्षमाला अ०, म०, इ०, स०, ल० । १० दत्ता। ११ गर्विताय। १२ कष्टम् । १३ लक्ष्मीमालाम् । १४ पूज्यताम् । १५ अकारि । १६ पुत्रम् । १७ न्यायमेव पुत्रमकरोत् ।
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