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पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व
४२६
तस्मै कन्यां गहाणेति नास्माभिः सा समर्पिता । पाराधकस्य वोषोऽसौ यत् प्रकुप्यन्ति देवताः ॥४३॥ मवैव विहिताः सम्यक धिता बन्धवोऽपि नः । स्निग्धाश्च' कथमेतेषां विदधामि विनिग्रहम् ॥४४॥ इत्येतद्देव मामस्थाः स्यात् सदोषो यदि त्वया। कुमारोऽपि निगृह्येत न्यायोऽयं त्वदुपक्रमः ॥४५॥ तदादिश विधेयोऽत्रको दण्डस्त्रिविधेऽपि नः। किविधः कि परिक्लेशः कि वार्थहरणं प्रभो ॥४६॥ तवादेशविधानेन नितरां कृतिनो वयम् । इहामुत्र च तद्देव यथार्थमनुशाधि नः ॥४७॥ इति प्रश्रयणी वाणी निगद्य हवयप्रियाम् । सुमखो राजराजस्य 'व्यरंसीत् करसंज्ञया ॥४॥ सतां वचांसि चेतांसि हरन्त्यपि हि रक्षसाम् । किं पुनः सामसाराणि तादृशां समतादृशाम् ॥४६॥ इहहीति प्रसन्नोक्त्या प्रफुल्लवदनाम्बुजः । उपसिंहासनं चक्री नि"सृष्टार्थं निवेश्य तम् ॥५०॥ प्रकम्पनैः किमित्येवम् उवीर्य प्रहितो भवान् । पुरुभ्यो" निविशेषास्ते सर्वज्येष्ठाश्च सम्प्रति ॥५१॥ गहाश्रमे त एवास्तैिरेवाहं च बन्धुमान् । निषेद्धारः प्रवृत्तस्य ममाप्यन्यायवर्त्मनि ॥५२॥ पुरवो मोक्षमार्गस्य पुरवो दानसन्ततेः। श्रेयांश्च चक्रिणां वृत्तयेथेहास्म्यहमग्रणीः ॥५३॥
तथा स्वयंवरस्पेमे नाभूवन् यद्यकम्पनाः। कः प्रवर्तयिताऽन्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥५४॥ ॥४२॥ 'तुम इस कन्याको ग्रहण करो' ऐसा कहकर तो मैंने जयकुमारके लिये दी नहीं थी, तथापि देवता जो कुपित हो जाते हैं उसमें देवताका नहीं किन्तु आराधना करनेवाले हीका दोष समझा जाता है ॥४३॥ ये सब वंश मेरे ही बनाये हुए हैं, मेरे ही बढ़ाये हुए हैं, मेरे ही भाई हैं और मुझसे ही सदा स्नेह रखते हैं इसलिये इनका निग्रह कैसे करूं ऐसा आप मत मानिये क्योंकि यदि आपका पुत्र भी दोषी हो तो उसे भी आप दण्ड दते हैं, इस न्यायका प्रारम्भ आपसे ही हुआ है । इसलिये हे प्रभो, आज्ञा दीजिये कि इस अपराधके लिये हम लोगोंको तीनों प्रकारके दण्डोंमेंसे कौन सा दण्ड मिलने योग्य है ? क्या फांसी ? क्या शरीरका क्लेश अथवा क्या धन हरण कर लेना ? ॥४४-४६॥ हे देव, आपकी आज्ञा पालन करनेसे ही हम लोग इस लोक तथा परलोक में अत्यन्त धन्य हो सकेंगे इसलिये आप अपराधके अनुसार हमें अवश्य दण्ड दीजिये ॥४७॥ इस प्रकार नम्रतासे भरे हुए और हृदयको प्रिय लगनेवाले वचन कहकर वह सुमुख दूत राजराजेश्वर-चक्रवर्तीके हायके इशारेसे चुप हो गया ॥४८॥ जब कि सज्जन पुरुषों के वचन राक्षसोंके भी चित्तको मोहित कर लेते हैं तब सबको समान दृष्टिसे देखनेवाले भरत जैसे महापुरुषोंके शान्तिपूर्ण चित्तकी तो बात ही क्या है ? ॥४९॥ जिनका मुखरूपी कमल प्रफुल्लित हो रहा है ऐसे चक्रवर्तीने 'यहां आओ' इस प्रकार प्रसन्नताभरे वचनोंसे उस दूतको अपने सिंहासनके निकट बैठाकर उससे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया कि 'महाराज अकंपनने इस प्रकार कहकर आपको क्यों भेजा है ? वे तो हमारे पिता के तुल्य हैं और इस समय हम सभी में ज्येष्ठ हैं ॥५०-५१॥ गृहस्थाश्रममें तो मेरे वे ही पूज्य हैं, उन्हींसे मैं भाईबन्धुवाला हूं, औरकी क्या बात ? अन्यायमार्गमें प्रवृत्ति करनेपर वे मुझे भी रोकने वाले हैं ॥५२॥ इस युगमें मोक्षमार्ग चलाने के लिये जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव गुरु हैं, दानकी परम्परा चलाने के लिये राजा श्रेयांस गुरु हैं और चक्रवर्तियोंकी बुत्ति चलाने में मैं मुख्य हूं उसी प्रकार स्वयंवरकी विधि चलाने के लिये वे ही गुरु हैं। यदि ये अकंपन महाराज नहीं होते तो इस स्वयंवर मार्गका चलानेवाला दूसरा कौन था ? यह मार्ग अनादि कालका है
१ जयाय। २ भरतेनैव । ३ स्नेहिता। ४ त्वया प्रथमोपक्रान्तः । ५ तत् कारणात् । ६ दोषे । ७नियामय। ८ तूष्णी स्थितः। राक्षसानाम् । १० वचांसि साम्नां साराणि चेत् । ११ सताम् । १२ समत्वनेत्राणाम् । १३ अत्रागच्छति । १४ सिंहासनसमीपे । १५ दूतमुख्यम् । १६ प्रेषितः । १७ पुरुजिनेभ्यः । गुरुभ्यो अ०, प०, म०, ल०, इ०, स० । १८ अकम्पना एव । १६ स्वयंवरमार्गः ।
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