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पञ्चचत्वारिंशवमं पर्व
४३१ सुमुखस्तइयाभारमिव वोतवाक्षमः । स जयोऽकम्पनो देव देवस्य नमति क्रमौ ॥६॥ लब्धप्रसाद इत्युक्त्वा क्षिप्त्वाऽङगानि प्रणम्य तम् । विकसददनाम्भोजः समुत्थाय कृताञ्जलिः॥६६॥ इत एवोन्मुखौ तौ त्वत्प्रतीच्छन्तौ मदागतिम् प्रास्थातां चातको वृष्टि प्रावृषो वाऽदिवाच्च ॥७० इति विज्ञाप्य चक्रेशात् कृतानुज्ञः कृतत्वरः। सम्प्राप्याकम्पनं नत्वा सजयं विहितादरम् ॥७१॥ गोभिः प्रकाश्य रक्तस्य प्रसाद चक्रवतिनः। रवेर्वा वासरारम्भस्तद्वक्त्राब्जं व्यकासयत् ॥७२॥ साधुवावः सवानैश्च सम्मानस्तौ च तं तदा । पानिन्यतुरतिप्रीति कृतज्ञा हि महीभूतः ॥७३॥ इत्यतर्कोवयावाप्तिविभासितशुभोदयः। अषिवान, जयः श्रीमान् सुखेन श्वासुरंग कुलम् ॥७४॥ . सुलोचनामुखाम्भोजषट्पदायितलोचनः । अनङगानणुबाणकतूणीरायितविग्रहः ॥७॥ तथा प्रवृत्ते सङग्रामे सायकैरक्षतः क्षतः१३ । "पेलवैः कुसुमरेभिविचित्रा विधिवृत्तयः॥७६॥
अस्मितां सस्मितां कुर्वन् प्रहसन्ती सहासिकाम् । सभयां निर्भयां बालाम् प्राकुला तामनाकुलाम् ॥७७॥ प्रकार सबके स्वामी महाराज भरतने सुमुख नामके दूतको संतुष्ट कर उसका मुख प्रसन्न किया और ज्येष्ठ पुत्रको छोड़कर न्यायको ही अपना औरस पुत्र बनाया। भावार्थ-न्यायके सामने बड़े पुत्रका भी पक्ष नहीं किया ॥६७॥ उसी समय चक्रवर्तीकी दयाका भार वहन करनेके लिये मानो असमर्थ हुआ सुमुख कहने लगा कि 'हे देव' जिन्हें आपका प्रसाद प्राप्त हो चुका है ऐसे जयकुमार और अकंपन दोनों ही आपके चरणोंको नमस्कार करते हैं, ऐसा कहकर उस दूतने अपने समस्त अंग पृथ्वीपर डालकर चक्रवर्तीको प्रणाम किया और जिसका मुखरूपी कमल विकसित हो रहा है तथा जिसने हाथ जोड़ रखे हैं ऐसा वह दूत खड़ा होकर फिर कहने लगा कि जिस प्रकार दो चातक वषो ऋतुक पहल बादलस वषो होनकी इच्छा करते हैं उसी प्रकार जयकुमार और अकंपन आपके समीपसे मेरे आनेकी इच्छा करते हुए इसी ओर उन्मुख होकर बैठे होंगे" ऐसा निवेदन कर जिसने चक्रवर्तीसे आज्ञा प्राप्त की है ऐसे उस दूतने बड़ी शीघ्रतासे जाकर आदरके साथ महाराज अकंपन और जयकुमारको नमस्कार किया तथा वचनोंके द्वारा अनुराग करनेवाले चक्रवर्तीकी प्रसन्नता प्रकट कर उन दोनोंके मुखकमल इस प्रकार प्रफुल्लित कर दिये जिस प्रकार कि दिनका प्रारम्भ समय (प्रातःकाल) किरणोंके द्वारा लाल सूर्यकी प्रसन्नता प्रकटकर कमलोंको प्रफुल्लित कर देता है ॥६८७२॥ उस समय उन दोनों राजाओंने धन्यवाद, दान और सम्मानके द्वारा उस दूतको अत्यन्त प्रसन्न किया था सो ठीक ही है क्योंकि राजा लोग किये हुए उपकार माननेवाले होते हैं ॥७३॥ इस प्रकार विचारातीत वैभवकी प्राप्तिसे जिसके शभ कर्मका उदय प्रकट हो रहा है ऐसा वह श्रीमान् जयकुमार सुखसे श्वसुरके घर रहने लगा ॥७४॥ जिसके नेत्र सुलोचनाके मुखरूपी कमलपर भ्रमरके समान आचरण करते थे और जिसका शरीर कामदेवके बड़े बड़े बाण रखनेके लिये तरकसके समान हो रहा था ऐसा वह जयकुमार युद्ध होनेपर लोहेके वाणोंसे उस प्रकार घायल नहीं हआ था जिस प्रकार कि अत्यन्त कोमल कामदेवके इन फूलोंके बाणोंसे घायल हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि देवलीला बड़ी विचित्र होती है ।।७५-७६।। वह जयकुमार मुस्कुराहटसे रहित सुलोचनाको मुस्कुराहटसे युक्त करता था, न हंसनेपर जोरसे हंसाता था, भययुक्त होनेपर निर्भय करता था, आकुल होनेपर निराकुल करता था, वार्तालाप न करनेपर
१ चक्रिकृपा। २ अकम्पनजयकुमारौ। ३ त्वत्तः । ४ वाञ्छन्तौ। ५ मदागमनम् । ६ प्रथममेघात् । ७ चक्रवर्तिनः । ८ वाग्भिः किरणैश्च । दिवसारम्भः । १० नीतवन्तौ। ११ स्थितवान् । १२ मातुलसम्बन्धिनि गृहे। १३ पीडितः । १४ मृदुभिः । १५ हाससहिताम् ।
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