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महापुराणम् 'जयोऽयात्सोऽयश्च प्रभवति गुणेभ्यो गुणगणः
सदाचारात्सोऽपि तब विहितवृत्तिः श्रुतमपि । प्रणीतं सर्वविदितसकलास्ते खलु जिना
स्ततस्तान् विद्वान् संश्रयतु जयमिच्छन् जय इव ॥३६७॥ इत्याष त्रिषष्टिलक्षणश्रीमहापुराणसङग्रहे भगवदगुणभद्राचार्यप्रणीते
जयविजयवर्णनं नाम चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ।
उदय है वह क्या नहीं कर सकता है ? ॥३६६॥ इस संसारमें विजय पुण्यसे होती है, वह पुण्य गुणोंसे होता है, गुणोंका समह सदाचारसे होता है, उस सदाचारका निरूपण शास्त्रोंमें है, शास्त्र सर्वज्ञ देवके कहे हुए हैं और सर्वज्ञ सब पदार्थोको जाननेवाले जिनेन्द्रदेव हैं इसलिये विजयकी इच्छा करनेवाले विद्वान् पुरुष जयकुमारके समान उन्हीं जिनेन्द्रदेवोंका आश्रय करेंउन्हीं की सेवा करें ॥३६७॥ इस प्रकार गुणभद्राचार्यविरचित त्रिषष्टिलक्षण महापूराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें जयकुमारकी विजयका वर्णन करनेवाला
चवालीसवां पर्व समाप्त हआ।
१ विजयः। २ पुण्यात् । ३ पुण्यञ्च ।
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