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चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व परिणतपरितापात्स्वेवषारी विलक्षो
'विगलितविभुभावो विह्वलीभूतचेताः। 'अधित विधिविधानं चिन्तयश्चक्रिसूनु
विरहविधुरत्ति' वीरलक्ष्मीवियोग॥३६३॥ येषामयं जितसुरः समरे सहाय
स्तानप्यहं कृतरतिः समुपासयामि । 'धुर्योऽयमेव यदि कात्र ‘विलम्बनेति
मत्वेव मडक्ष समियाय जयं० जयश्रीः ॥३६४॥ सर बहुतरमरा जन्प्रोच्छ्रितान्शत्रुपांसून ५
द्रुतमिति शमयित्वा वृष्टिभिः सायकानाम् । उपगतहरिभूमिः" प्राप्य भूरिप्रतापं ।
दिनकर इव कन्या सम्प्रयोगाभिलाषी ॥३६॥ सौभाग्यन यदा स्ववक्षसि धुता माला तदैवापरं
वीरो०वीधमवार्यवीर्यविभवो विभ्रश्य विश्वद्विषः। वीरश्रीविहितं२२ दधौ स शिरसाऽम्लानं यशः शेखरं
लक्ष्मीवान् विदधाति साहससखः२३ किंवा न पुण्योदये ॥३६६॥
जाता है ॥३६२।। प्राप्त हुए संतापसे जिसे पसीना आ रहा है, जो लज्जित हो रहा है, 'मैं सबका स्वमी हूँ' ऐसा अभिप्राय जिसका नष्ट हो गया है, जिसका चित्त विह्वल हो रहा है, और जो भाग्यकी गतिका विचार कर रहा है ऐसे अर्ककीर्तिने वीरलक्ष्मीका वियोग होनेपर उसके विरहसे विधुर वृत्ति धारण की थी ॥३६३॥ देवोंको जीतनेवाला यह जयकुमार युद्धमें जिनकी सहायता करता है में उनकी भी बड़े प्रेमसे उपासना करती हूँ, फिर यदि यह ही सबमें मुख्य हो तो इसमें विलम्ब क्यों करना चाहिये ऐसा मानकर ही मानो विजयलक्ष्मी जयकुमार के पास बहुत शीघ्र आ गई थी ॥३६४।। इस प्रकार बाणोंकी वर्षासे ऊपर उठी हुई शत्रुरूपी धूलिको शीघ्र ही नष्ट कर पराक्रमके द्वारा सिंहका स्थान प्राप्त करनेवाला और अब कन्याके संयोगका अभिलाषी जयकुमार उस सर्यकी तरह बहत ही अधिक सशोभित हो रहा था जोकि सिंह राशिपर रहकर कन्या राशिपर आना चाहता है ॥३६५॥ जिसकी पराक्रमरूपी सम्पत्ति का कभी कोई निवारण नहीं कर सकता ऐसे शूरवीर जयकुमारने जिस समय सौभाग्यके वश से अपने वक्षःस्थलपर माला धारण की थी उसी समय सब शत्रुओंको नष्ट कर वीरलक्ष्मीका बना हुआ तथा कभी नहीं मुरझानेवाला यशरूपी दूसरा सेहरा भी उसने अपने मस्तकपर धारण किया था, सो ठीक ही है क्योंकि जो लक्ष्मीमान् है, साहसका मित्र है और जिसके पुण्यका
१ विस्मयान्वितः । २ विभुत्वरहितः । ३ धरति स्म । ४ कर्मभेदम् । ५ विरविक्लवस्य वर्तनम् । ६ जयकुमारः। ७ धुरन्धरः । ८ कालक्षेपः । ६ शीघ्रम् । १० जयकुमारम् । ११ जयः । १२ अत्यधिकम् । १३ विराजति स्म । १४ उन्नतान् । १५ रेणून् । १६ शीघ्रम् । १७ प्राप्तशक्रपदः । प्राप्तसिंहराशिस्थानश्च । १८ सन्तापम्, प्रभावम् । १६ सुलोचनासङगाभिलाषी। कन्याराशिगतसम्प्रयोगाभिलाषी च। २० शुभ्रम्। २१ पातयित्वा। २२ कृतम् । २३ साहस एव सखा। २४ पुष्पोदये ल०, अ०, प०, स०, इ० ।
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