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महापुराणम् जयोऽपि जगदीशानमित्याप्त'विजयोदयः। प्रस्तावीदस्तकर्माणं भक्तिनिर्भरचेतसा ॥३५७।।
शमिताखिलविघ्नसंस्तवस्त्वयि तुच्छोऽप्युपयात्यतुच्छताम् । शुचिशुक्तिपुटम्बुसन्धृतं नन मुक्ताफलतां प्रपद्यते ॥३५८॥ घटयन्ति न विघ्नकोटयो
निकटे त्वत्क्रमयोनिवासिनाम् । पटवोऽपि फलं दवाग्निभि
भयमस्त्य म्बुधिमध्यतिनाम् ॥३५६॥ हृदये त्वयि सन्निधापिते'
रिपवः केपि भयं विधित्सवः । अमृताशिषु सत्सु सन्ततं
विषमोदापितविप्लवः कुतः॥३६०॥ उपयान्ति समस्तसम्पदो
विपदो विच्युतिमाप्नुवन्त्यलम् । वृषभं वृषमार्गदेशिनं
झषकेतुद्विषमाप्नुषां सताम् ॥३६१॥ इत्थं भवन्तमतिभक्तिपथं निनीषोः१०
प्रागेव बन्धकलयः प्रलयं व्रजन्ति । पश्चादनश्वरमयाचितमप्यवश्यं
सम्पत्स्यतेऽस्य विलसद्गुणभद्रभद्रम् १२ ॥३६२॥ जिसे विजयका ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है ऐसा जयकुमार भी भक्तिसे भरे हुए हृदयसे समस्त कर्मों को नष्ट करनेवाले जगत्पति-जिनेन्द्रदेवकी इस प्रकार स्तुति करने लगा ॥३५७॥ हे समस्त विघ्नोंको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्रदेव , आपके विषयमें किया हुआ स्तवन थोड़ा होकर भी बड़े महत्त्वको प्राप्त हो जाता है सो ठीक ही है क्योंकि पवित्र सीपके संपुटमें पड़ी हुई पानी की एक बद भी मोतीपनको प्राप्त हो जाती है-मोतीका रूप धारण कर लेती है ॥३५८।। हे देव, फल देने में चतुर करोड़ों विघ्न भी आपके चरणोंके समीप निवास करनेवाले पुरुषों को कुछ फल नहीं दे सकते सो ठीक ही है क्योंकि क्या समुद्रके बीचमें रहनेवाले लोगोंको दावानलसे कभी भय होता है ? ॥३५९॥ हे प्रभो, आपको हृदयमें धारण करनेपर फिर ऐसे कौन शत्रु रह जाते हैं जो भय देनेकी इच्छा कर सकें, निरन्तर अमृतभक्षण करनेवाले पुरुषोंमें किसी विषसे उत्पन्न हुआ उपद्रव कैसे हो सकता है ? ॥३६०॥ धर्मके मार्गका उपदेश देनेवाले और कामदेवके शत्र श्रीवषभदेवकी शरण लेनेवाले सज्जन पुरुषोंको सब सम्पदाएँ अपने आप मिल जाती हैं और उनकी सब आपत्तियां अच्छी तरह नष्ट हो जाती हैं ॥३६१॥ हे शोभायमान गुणोंसे कल्याण करनेवाले जिनेन्द्र, इस प्रकार जो आपको अतिशय भक्तिके मार्गमें ले जाना चाहता है उसके कर्मबन्धके सब दोष पहले हीसे प्रलयको प्राप्त हो जाते हैं और फिर पीछेसे कभी नष्ट नहीं होनेवाला मोक्षरूपी कल्याण बिना मांगे ही अवश्य प्राप्त हो
१ प्राप्त । २ स्तौति स्म । ३ अस्ति किम् । ४ सन्निधानीकृते। ५ परिभवम् । ६ विधातुमिच्छवः । ७ अमृतमश्नन्तीति अमृताशिनस्तेषु। ८ धर्ममार्गोपदेशकम् । ६ प्राप्नुवताम् । १० नेतुमिच्छोः । ११ बन्धदोषाः। १२ सम्पन्नं भविष्यति । १३ कल्याणम् ।
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