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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
४०७ अनुकलानिलोक्षिप्तपुरःसर्पध्वजांशुकैः । क्रान्तद्विपारिविक्रान्तविख्यातारूढयोधनः ॥२०६H प्रस्फुरच्छस्त्रसङघातदीप्तिदीपितदिडामुखैः। 'धूतदुन्दुभिसद्ध्वानबृहबृहितभीषणैः ॥२१०॥ घण्टामधुरनिर्घोषनिभिन्न भुवनत्रयः । सद्यः समुत्सरद्दपैरपि सिंहान् जिगीषुभिः ॥२११॥ प्रापबुद्धोत्सकः सार्द्ध गजैविजयसूचिभिः । क्षयवेलानिलोद्भूतसिन्धवेलां विडङघयन् ॥२१२॥ महाहास्तिक विस्तारस्थूलनोलवलाहकः । समन्तात्सम्पतच्छडाकु समूहसहसानकः ॥२१३॥ प्रोत्खातासिलताविद्युत्समुल्लसितभासुरः । नानानकमहाध्वानगम्भीरघनर्गाजतः ॥२१४॥ १ नवलोहितपूराम्बनिरुद्धधरणीतलः । नितान्तनिष्ठरापातमुद्गराशनिसन्ततिः ॥२१॥ चलत्सितपताकालिबलाकाच्छादिताम्बरः। सङग्रामः प्रावृषो लक्ष्मीम् अशेषामपुरुषत्तदा ॥२१६॥ सुचिरं सर्वसन्दोहसंवृत्तसमराङगण । सेनयोः सर्वशस्त्राणां व्यत्ययो" बहुशोऽभवत् ॥२१७॥ निरुद्धमूवम् गृधौधर्मध्यमुद्यद्ध्वजांशुकैः। सेनाद्वयविनिर्मुक्तैः शस्त्रैर्धात्री च सा तता५ ॥२१॥ जयलक्ष्मी नवोढायाः सपत्नीमिच्छता नवाम् । तदार्ककीतिमुद्दिश्य जयनाचोद्यत" द्विपः ॥२१॥
अष्टचन्द्राः पुरोभूयः८ भूयः प्राग्दृष्टशक्तयः । क्षपर्क १ २२वांऽहसा भेक्षा न्यरुद्धस्तं" निनक्षवः२५ ॥ जिनकी ध्वजाओंके वस्त्र उड़कर आगेकी ओर जा रहे हैं, आक्रमण करते हुए सिंहके समान प्रसिद्ध पराक्रमवाले योद्धा जिनपर बैठे हैं, देदीप्यमान शस्त्रोंके समूहकी दीप्तिसे जिन्होंने समस्त दिशाओं के मुख प्रकाशित कर दिये हैं, बजते हुए नगाड़ोंके बड़े बड़े शब्दोंसे बढ़ती हुई गर्जनाओं से जो भयंकर हैं, घंटाओंके मधुर शब्दोंसे जिन्होंने तीनों लोक भर दिये हैं, तत्काल उठते हुए अहंकारसे जो सिंहोंको भी जीतना चाहते हैं और जो विजयकी सूचना करनेवाले हैं ऐसे हाथियों के साथ, प्रलय कालको वायुसं उठी हुई समुद्रकी लहरोको उल्लंघन करता हुआ यद्धकी उत्कंठा से आ पहुंचा ॥२०६-२१२॥ जिसमें बड़े बड़े हाथियोंके समूहका विस्तार ही बड़े बड़े काले बादल हैं, चारों ओरसे पड़ते हुए बाणोंके समूह ही मयूर हैं, ऊपर उठाई हुई तलवाररूपी बिजलियोंकी चमकसे जो प्रकाशमान हो रहा है, अनेक नगाड़ोंके बड़े बड़े शब्द ही जिसमें मेघोंकी गंभीर गर्जनाएं हैं, नवीन रुधिरके प्रवाहरूपी जलसे जिसमें पृथ्वीतल भर गया है, बड़ी निर्दयता के साथ पड़ते हुए मुद्गर ही जिसमें वजोंका समूह है और फहराती हुई सफेद पताकाओंके समूहरूप बगलाओंसे जिसमें समस्त आकाश आच्छादित हो रहा है ऐसा वह युद्ध उस समय वर्षाऋतुकी सम्पूर्ण शोभाको पुष्ट कर रहा था ॥२१३-२१६॥ बहुत देरतक सब योद्धाओं के समूहसे घिरे हुए युद्धके मैदानमें दोनों सेनाओंके सब शस्त्रोंका अनेक बार व्यत्यय (अदला बदली) हआ था ॥२१७॥ उस समय ऊपरका आकाश गीधोंके समहसे भर गया था, भाग फहराती हुई ध्वजाओंके वस्त्रोंसे भर गया था और पृथिवी दोनों सेनाओंके द्वारा छोड़े हुए शस्त्रोंसे भर गई थी ॥२१८॥ उसी समय जयलक्ष्मीको नवीन विवाहिता सुलोचना की नई सौत बनानेकी इच्छा करते हुए जयकुमारने अर्ककीर्तिको उद्देश्य कर अपना हाथी आगे बढ़ाया ॥२१९।। जिस प्रकार कर्मोके भेद क्षपकश्रेणीवाले मुनिको रोकते हैं उसी प्रकार अष्टचन्द्र नामके विद्याधर जिनकी कि शक्ति पहले देखने में आई थी फिरसे सामने आकर
१ आक्रान्तसिंहपराक्रमप्रसिद्धाकारणाधोरणैः। २ ताडित । ३ व्याप्त। ४ प्रलयकाल । ५ विलडाघयन् ल०, म०, अ०, ५०, इ०, स० । ६ गजसमूह । ७ कालमेघ । ८ शय्यायुधसमूहमयूरकः । ६ स्फुरण । १० नूतनरक्त । ११ द्रुघण। १२ विषकण्ठिका। १३ पुष्णाति स्म। १४ व्यत्यय इति सम्बन्धिनः इतरेण हरणम् । ('ता०' प्रतौ व्यत्ययः इतरसम्बन्धिनः इतरेण हरणम्) १५ व्याप्ता। तदा ल०। १६ नूतनविवाहितायाः सुलोचनायाः । १७ प्रेरितः । १८ अग्रे भूत्वा । १६ पुनः पुनः। २० पूर्व दृष्टपराक्रमाः । २१ क्षपकश्रेण्यारूढम् । २२ इव । २३ कर्मणाम् । २४ जयम् । २५ नाशितुमिच्छवः ।
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