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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
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सन्नद्धस्यन्दनाश्चण्डास्तदा हेमाङगदादयः । कोदण्डास्फालनध्वाननिरुद्धहरितः क्रुधा ॥१८॥ ववर्ष वलिवष्टि वा बाणष्टि प्रति द्विषः । यावत' लक्ष्यतां "नयुस्तावदाविष्कृतोद्यमाः ॥१८॥ निरुध्यानन्तसेनादिशरजालं रणार्णवे। स्यन्दताश्चोदयामासः पोतान्या वातरंहसः ॥१०॥ बलद्वयास्त्रसंघट्टसमुत्पन्नाशुशुक्षणिम् ।"पेतुर्वाहाः परं तेजस्तेजस्वी सहने कथम् ॥१६॥ अन्योऽन्य खण्डयन्ति स्म तेषां शस्त्राणि तद्रणे । नेकमप्यपरान्प्रापुश्चित्रमस्त्रेषु कौशलम् ॥१२॥ न मुता प्रणिता नव न जयो न पराजयः । युद्धमानेष्वहो तेषु नाहवोऽप्याहवायते ॥१६३॥ युवध्वाऽप्येवं चिरं शेर्न जेतुं ते परस्परम् । जयः सेनाद्वये तस्मिन् एजयादन्येन दुर्लभः ॥१६४॥ अन्तहाँसो जयः सर्व तत्तदाऽऽलोक्य लीलया। शरैः संच्छादयामास सैन्यं पुत्रस्य चक्रिणः ॥१६॥ निष्पन्दीभूतमालोक्य चक्रिसूनुः स्वसाधनम् । रक्तोत्पलदलच्छायाम् उच्छिद्यर नयनत्विषा ॥१९६॥ जयः परस्य नो मेऽद्य जयो "जयमहं रणे । विध्वस्य५ भुवने शुद्धम् अकल्पं स्थापये यशः ॥१७॥ विदध्यामद्य नाथेन्दुप्रसरवंशवर्द्धनम् । "जयलक्ष्मीर्वशीकृत्य विधेयान्मेऽधुना सुखम् ॥१६॥
और सबको जीतते हुए उस जयकुमारको सहन करनेके लिये असमर्थ होकर वे सब शत्रु उसपर इस प्रकार टट पड़े मानो अग्निपर पतंगे ही पड़ रहे हों ।।१८७॥ इतने में ही जिनके रथ तैयार हैं, जो बड़े क्रोधी हैं, जिन्होंने क्रोधसे धनुष खींचकर उनके शब्दोंसे सब दिशाएं भर दी हैं और शत्रु जबतक अपने लक्ष्यतक पहुंचने भी न पाये थे कि तबतक ही जिन्होंने अपना सब उद्यम प्रकट कर दिखाया है ऐसे हेमांगद आदि राजकुमार शत्रुओंपर अग्नि वर्षाके समान बाणोंकी वर्षा करने लगे ॥१८८-१८९।। वे अनन्तसेन आदिके बाणोंका समह रोककर वायुके समान वेगवाले रथोंको रणरूपी समुद्र में जहाजोंके समान दौड़ाने लगे ॥१९०॥ वे रथोंके घोड़े दोनों सेनाओं सम्बन्धी शस्त्रोंके संघट्टनसे उत्पन्न हुई अग्निपर पड़ रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी मनुष्य दूसरेका तेज कैसे सह सकता है ? ॥१९१।। उस युद्ध में दोनों सेनाओंके शस्त्र एक दूसरेको खंड खंड कर देते थे, एक भी शस्त्र शत्रुओं तक नहीं पहुंचने पाता था सो ठीक ही है क्योंकि उनकी अस्त्रोंके चलानेकी कुशलता आश्चर्य करनेवाली थी ॥१९२॥ आश्चर्य है कि उन योद्धाओंके युद्ध करते हुए न तो कोई मरा था, न किसीको घाव लगा था, न किसीकी जीत हुई थी और न किसीकी हार ही हुई थी, और तो क्या उनका वह युद्ध भी युद्ध सा नहीं मालूम होता था ॥१९३॥ इस प्रकार बहुत समय तक युद्ध करके भी वे एक दूसरे को जीत नहीं सके थे सो ठीक ही है क्योंकि उन दोनों सेनाओंमें जयकुमारके सिवाय और किसी को विजय प्राप्त होना दुर्लभ था ॥१९४॥ उस समय यह सब देखकर मन ही मन हंसते हुए जयकुमारने चक्रवर्तीके पुत्र-अर्ककीर्तिकी सब सेनाको लीलापूर्वक ही बाणोंसे ढक दी थी ॥१९५।। अपनी सेनाको चेष्टा रहित देखकर चक्रवर्तीका पुत्र-अर्ककीति अपने नेत्रोंकी कान्तिसे लाल कमलके दलकी कान्तिको जीतता हुआ अर्थात् क्रोधसे लाल लाल आंखें करता हुआ कहने लगा कि आज शत्रुकी जीत नहीं हो सकती, मेरी ही जीत होगी, मैं युद्ध में जयकुमारको मारकर संसारमें कल्यान्त कालतक टिकनेवाला शुद्ध यश स्थापित करूँगा तथा आज ही बढ़ते हुए नाथ
१ दिशः । 'दिशस्तु ककुबः काष्ठा आशाश्च हरितश्च ताः'। इत्यभिधानात् । २ रथिनः । ३ रणाङ्गणे अभिमुखं समागत्य मुख्यताम् । ४ न गच्छन्ति स्म। ५ वायुवेगिनः । ६ अग्निम् । ७ जग्मुः। ८ अश्वाः । ६ अन्यत् । १० एक शस्त्रमपि। ११ जयकुमारात् । १२ अभिशय्येत्यर्थः । १३ न । मे नो जयः इति दुर्ध्वनिः । १४ जयकुमारम् । १५ विनाश्य । अविनाश्यति दुर्ध्वनिः । १६ जयस्य लक्ष्मीः इति दुर्ध्वनिः । १७ सुखमिति दुर्ध्वनिः । 'आ०' प्रतौ असुखमिति दुर्ध्वनिः ।
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