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महापुराणम् बुवन् स कल्पनादुष्टमिति स्वानिष्टसूचनम् । द्विपं प्रचोदयामास ऋधेवाजयमात्मनः ॥१६॥ "प्रतिवातसमुद्भूतपश्चाद्गतपताकिकाः। मन्दं मन्दं क्वणघण्टाः कुण्ठितस्वबलोत्सवाः ॥२०॥ संशष्यहान निष्यन्टकटदीनाननश्रियः। "निर्वाणालातनिर्भासनिःशेषास्त्रभराक्षमाः ॥२०१॥ 'आधोरणैः कृतोत्साहः कृच्छकृच्छे ण चोदिताः। प्राक्रन्दमिव कुर्वन्तः कुण्ठितः कण्ठगजितः ॥२०२॥ भीतभीता धोऽन्यैश्च चिह्ररशुभसूचिभिः । गजा गताजवाश्चेलुरचला इव जडागमाः ॥२०३॥ मन्दमन्दं प्रकृत्यैव मन्दा युद्धभयान्मृगाः । जग्मुनिहेतुकं १५भद्रास्तदत्राशुभसूचनम् ॥२०४॥ विजिगीषोविपुण्यस्य वृथा प्रणिधयो यथा। तथाऽर्ककीर्तयन्नुणां८ ते" गजेषु नियोजिताः ॥२०॥ लङधयन्नेत्रयोर्दीप्त्या २०पारिभद्रोद्गमच्छविम् । प्रकट कुटीबन्धसन्धानितशरासनः ॥२०६॥ रिपुं कुपितभोगीन्द्रस्फुटाटोप भयङकरः । कुर्वन्विलोकनातप्ततीव्रनाराचगोचरम् ॥२०७॥
गिरीन्द्रशिखराकारमारुहय हरिविक्रमः। गजेन्द्र विजया ख्यं गर्जन्मेघ स्वरस्तदा ॥२०॥ वंश और सोमवंशका छेदन करूंगा, विजयलक्ष्मी मुझे अभी वशकर सुखी करेगी, इस प्रकार अभिप्रायसे दृष्ट तथा अपना ही अनिष्ट सचित करनेवाला वचन कहते हए अर्ककीतिने क्रोधसे अपने पराजयके समान अपना हाथी आगे बढ़ाया ॥१९६-१९९॥ प्रतिकूल वायु चलनेसे जिनकी ध्वजाएं पीछेकी ओर उड़ रही हैं, जिनके घंटा धीरे धीरे बज रहे हैं, जिन्होंने अपनी सेनाके उत्सवको कुंठित कर दिया है, गण्डस्थलके मदका निष्यन्द सूख जानेसे जिनके मुख की शोभा मलिन हो गई है, जिनकी शोभा बुझे हुए अलातचक्रके समान है, जो सम्पूर्ण शस्त्रोंका भार धारण करने में असमर्थ है, उत्साह दिलाते हुए महावत जिन्हें बड़ी कठिनाईसे ले जा रहे हैं, जो कुण्ठित हुई कण्ठकी गर्जनासे मानो रुदन ही कर रहे हैं, जो युद्धसे तथा अशुभको सूचित करनेवाले अन्य अनेक चिह्नोंसे अत्यन्त भयभीत हो रहे हैं और जिनका वेग नष्ट हो गया है ऐसे हाथी चलते फिरते पर्वतोंके समान चल रहे थे ॥२००-२०३॥ मन्द हाथी स्वभावसे ही मन्द मन्द चल रहे थे, मृग जातिके हाथी युद्धके भयसे धीरे धीरे जा रहे थे और भद्र जातिके हाथी बिना ही कारण धीरे धीरे चल रहे थे परन्तु युद्ध में उनका धीरेधीरे चलना अशुभको सूचित करनेवाला था ॥२०४॥ जिस प्रकार विजयकी इच्छा करनेवाले किन्तु पुण्यहीन मनुष्यके गुप्त सेवक व्यर्थ हो जाते हैं-अपना काम करने में सफल नहीं हो पाते हैं उसी प्रकार अर्ककीर्ति के लिये उन हाथियोंसे कही हुई महावत लोगोंकी प्रार्थनाएं व्यर्थ हो रही थों ॥२०५।। उधर जो अपने दोनों नेत्रोंकी कान्तिसे कल्पवृक्षके फूलकी कान्तिको जीत रहा है, जिसने अपनी भौहोकी रचनाके समान ही प्रकटरूपसे बाण चढ़े धनुषका आकार बनाया है, क्रोधित हए महा सर्पके समान जिसका शरीर कुछ ऊपर उठा हआ है और इसीलिये जो भयंकर है, जो अपने शत्रुको अपनी दृष्टि तथा तपे हुए बाणोंका निशाना बना रहा है, एवं सिंहके समान जिसका पराक्रम है ऐसा मेघस्वर जयकुमार उस समय गर्जता हुआ मेरुकी शिखर के समान आकारवाले विजया नामके उत्तम हाथीपर सवार होकर, अनकल वायु चलनेसे
१ अभिप्रायदुष्टम् । २ निजानिष्ट । ३ अपजयम् । ४ प्रतिकूलवायुः । ५ मन्दमन्द-अ०, ५०, सं०, इ०, ल०। ६ मदस्रवण । ७ नष्टोल्मकसदृशः । ८ हस्तिपकैः । ६ कृतोद्योगैः । १० रोदनम् । ११ अधिकभीताः। १२ सङग्रामात् । १३ स्वभावेनैव जडाः । मन्दा इति जातिभेदाश्च । १४ मृगसदृशाः मृगजातयश्च । १५ भद्रजातयः । १६ मन्दगमनम्। १७ वाञ्छा: चराश्च । 'प्रणिधिः प्रार्थने चरे' इत्यभिधानात् । १८ गजारोहकाणाम् ।-कीर्तये नृणां ल०। १६ मनोरथाः। २० मन्दारकुसुमच्छविम् । 'परिभद्रो निम्बतरुमन्दारः पारिजातकः।' इत्यभिधानात् । २१ टोपो भयङकरः ल, म० । २२ निजालोकनान्येव अतप्ततीक्ष्णवाणास्तेषां विषयम् । २३ जयकुमारः ।
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