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महापुराणम् जिनविहितमनूनं संस्मरन् धर्ममार्ग
स्वयमधिगततत्त्वो बोधयन् मार्गमन्यान । कृतमतिरखिलां मां पालयनिःसपत्नां
चिरमरमत भोगै रिसारैः स सम्राट् ॥१५७॥
शार्दूलविक्रीडितम् लक्ष्मीवाग्वनितासमागमसुखस्यकाधिपत्यं दधत्
दूरोत्सारितदुर्णयः प्रशमिनीं तेजस्वितामुखहन् । न्यायोपाजितवित्तकामघटनः शस्त्रे च शास्त्रे कृती
राषिः परमोदयो जिनजुषामग्रेसरः सोऽभवत् ॥१५॥
इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे भरतराजस्वप्नदर्शनतत्फलोपवर्णन
नाम एकचत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४१॥
करता था ॥१५६॥ जिसने समस्त तत्त्वोंको जान लिया है और जिसकी बुद्धि परिपक्व है ऐसा समाट भरत, जिनेन्द्रदेवके कहे हुए न्यूनतारहित धर्ममार्गका स्मरण करता हुआ तथा वही मार्ग अन्य लोगोंको समझाता हुआ और शत्रुरहित सम्पूर्ण पृथिवीका पालन करता हुआं सारपूर्ण भोगोंके द्वारा चिरकालतक क्रीड़ा करता रहा था।।१५७।। जो लक्ष्मी और सरस्वतीके समागमसे उत्पन्न हुए सुखके एक स्वामित्वको धारण कर रहा है, जिसने समस्त दुष्ट नय दूर हटा दिये हैं, जो शान्तियुक्त तेजस्वीपनेको धारण कर रहा है, जिसने न्यायपूर्वक कमाये हुए धनसे कामका संयोग प्राप्त किया है, जो शस्त्र और शास्त्र दोनोंमें ही निपुण है, राजर्षि है और जिसका अभ्यदय अतिशय उत्कृष्ट है ऐसा वह भरत जिनेन्द्रदेवकी सेवा करनेवालोंमें अग्रेसर अर्थात् सबसे श्रेष्ठ था ॥१५८।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतराजके स्वप्न तथा उनके फलका वर्णन
करनेवाला इकतालीसवां पर्व समाप्त हुआ ।
१ जिनसेवकानाम् ।
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