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महापुराणम् तिर्यग्गोष्फणपाषाणः अदृष्ट्वाज्यजिराद्' बहिः । पातितान् खचरानचुः सतनन् स्वर्गतान् जडाः ॥१५७ शरसंरुग्ण विद्याधुन्मुकुटेभ्योऽगलन सुरैः । मणयो गुणगृहयी जयस्योपायनीकृताः ॥१५८॥ "पतन्मूतखगान्वीतप्रियाभिः स्वाश्रुवारिणा।'बारिवानमिवाचर्य कृपामासावितो जयः ॥१५॥ अन्तकः समवर्तीति तद्वार्तंव न चेत्तथा । कथं चक्रिसुतस्यैव बले प्रेताधिपो भवेत् ॥१६॥ वधं विधाय न्यायेन जयनान्यायवर्तिनाम् । श्यमस्तीक्ष्णोऽप्यभूद्धर्मस्तत्र दिव्यानलोपमः ॥१६॥ तावद्धेषित निर्घोषीषयन्तो द्विषो हयाः। बलमाश्वासयन्तः स्वं स्वीचक्रुश्चाक्रिसूनवः ॥१६२॥ प्रासान्प्रस्फुरतस्तीक्ष्णान् अभीक्ष्णं वाहवाहिनः । प्रावर्तयन्तः सम्प्रापन् यमस्येवाग्रगा भटाः ॥१६३॥ जयोऽपि स्वयमारुह्य जयी जयतुरङगमम् । क्रुद्धः प्रासान समुद्धत्य योद्धमश्वीयमादिकान् ॥१६४॥ अभत प्रहतगम्भीरभम्भा'दिध्वनिभीषणः । बलार्णवश्चलत्स्थलकल्लोल इव वाजिभिः ॥१६॥
॥१५६॥ तिरछे जानेवाले गोफनोंके पत्थरोंसे युद्ध के आंगनसे बाहर पड़े हुए विद्याधरोंको न देखकर मूर्ख लोग कहने लगे थे कि देखो विद्याधर शरीर सहित ही स्वर्ग चले गये हैं ॥१५७॥ बाणोंकी चोटसे छिन्नभिन्नं हुए विद्याधरोंके मुकुटोंसे जो मणि गिर रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो गुणोंसे वश होनेवाले देवोंने जयकुमारको भेंट ही किये हों ॥१५८॥ गिर गिरकर मरे हुए विद्याधरोंके साथ आई हुई स्त्रियां अपने अश्रुरूपी जलसे जो उन्हें जलांजलि सी दे रही थीं उसे देखकर जयकुमारको दया आ गई थी ॥१५९॥ यमराज समवर्ती है अर्थात् सबको समान दृष्टिसे देखता है यह केवल कहावत ही है यदि ऐसा न होता तो वह केवल चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिकी सेनामें ही क्यों प्रेतोंका राजा होता? अर्थात् उसीकी सेनाको क्यों मारता ? ॥१६०।। जयकुमारके द्वारा अन्यायमें प्रवृत्ति करनेवाले लोगोंका वध कराकर वह तीक्ष्ण यमराज भी उस युद्ध में दिव्य अग्निके समान धर्मस्वरूप हो गया था। भावार्थ
साक्षी आदिके न मिलनेपर अपराधीकी परीक्षा करनेके लिये उसे अग्निमें प्रविष्ट कराया जाता था, अथवा जलते हुए अंगार उसके हाथपर रखाये जाते थे। अपराधी मनुष्य उस अग्निमें जल जाते थे परन्तु अपराधरहित मनुष्य सीता आदिके समान नहीं जलते थे । उसी आगको दिव्य अग्नि कहते हैं सो जिस प्रकार दिव्य अग्नि दुष्ट होनेपर भी अपराधीको ही जलाती है अपराधरहितको नहीं जलाती उसी प्रकार यमराजने दुष्ट होकर भी अन्यायी मनुष्योंका ही वध कराया न कि न्यायी मनुष्योंका भी, इसलिये वह यमराज दुष्ट होनेपर भी मानो उस समय दिव्य अग्निके समान धर्मस्वरूप हो गया था ॥१६१॥ इतने में ही हिनहिनाहटके शब्दोंसे शत्रुओंको डराते हुए और अपनी सेनाको धीरज बंधाते हुए चक्रवर्तीके
तिके घोडे सामने आये ॥१६२।। यमराजके अग्रगामी योद्धाओंके समान, देदीप्यमान और पैने भालोंको बार बार घुमाते हुए घुड़सवार भी सामने आये ॥१६३॥ विजय करनेवाले जयकुमारने भी क्रोधित हो, जयतुरंगम नामके घोड़ेपर सवार होकर अपनी घुड़सवार सेनाको भाला लेकर युद्ध करनेकी आज्ञा दी ॥१६४॥ घोड़ोंके द्वारा जिसमें चंचल और बड़ी बड़ी लहरें सी उठ रही हैं ऐसा वह सेनारूपी समुद्र बजते हुए गंभीर नगाड़े आदिके शब्दों
१ शस्त्रविशेषः। २ रणाडगणात् । ३ पतितान् ल०, स०, अ०, म०। ४ स्वर्ग गतान् । ५ भुग्न । ६ गलन्ति स्म। ७ गतप्राणविद्याधरानुगत। ८ जलाञ्जलिम् । ६ विधाय । १० बालवृद्धादिषु हननक्रियायां समानेन वर्तमानः । ११ यमः । १२ अन्तकः । १३ जये। १४ शपथाग्निसमः । १५ अश्वनिनाद । १६ चक्रिसूनोः सम्बन्धिनः । १७ अश्वारोहाः । १८ भम्भेत्यनुकरणम् ।
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