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महापुराणम्
विशेषतस्तु तत्सर्गः क्षेत्रकालव्यपेक्षया । तेषां समुचिताचारः प्रजार्थे व्यायवृत्तिता ॥१२॥ स तु न्यायोऽनतिक्रान्त्या धर्मस्यार्थ समर्जनम् । रक्षणं वर्धनं चास्य पात्रे च विनियोजनम् ॥१३॥ संषा चतुष्टयी वृत्तिर्व्यायः सद्भिरुदीरितः । जैनधर्मानुवृत्तिश्च न्यायो लोकोत्तरो मतः ॥ १४ ॥ दिव्यमूर्त्तेरुत्पद्य जिनावुत्पादयज्जनान् । रत्नत्रयं तु तद्योनिर्नृपास्त 'स्मादयोनिजाः ॥१५॥ ततो महान्ययोत्पन्ना नृपा लोकोत्तमा मताः । पथिस्थिताः स्वयं धर्म्य स्थापयन्तः परानपि ॥ १६ ॥ तस्तु सर्वप्रयत्नेन कार्यं स्वान्वयरक्षणम् । तत्पालनं कथं कार्यमिति चेत्तदनूद्यते ॥ १७॥ स्वयं महान्वयत्वेन महिम्ति क्षत्रियाः स्थिताः । धर्मास्थयां न शेषादि ग्राह्यं तैः परलिगनाम् ॥१८॥ तच्छेषादिग्रहे दोषः कश्चेन्माहात्म्यविच्युतिः । श्रपायाः बहवश्चास्मिन् श्रतस्तत्परिवर्जनम् ॥ १६॥ माहात्म्य प्रच्युतिस्तावत् कृत्वाऽन्यस्य' शिरोनतिम् । ततः शेषाद्युपादाने स्यान्निकृष्टत्वमात्मनः ॥२०॥ प्रद्विषन् परपाषण्डी विषपुष्पाणि निक्षिपेत् । यद्यस्य मूनि नन्वेवं स्यादपायो महीपतेः ॥ २१ ॥ वशीकरणपुष्पाणि निक्षिपेद्यदि मोहने" । ततोऽयं मूढवद्वृत्तिः उपेयादन्यवश्यताम् ॥२२॥ तच्छेषाशीर्वचः " शान्तिवचनाद्यन्य लिङगिनाम्" । पार्थिवैः परिहर्तव्यं भवेन्न्यकर कुलताऽन्यथा" ॥२३॥
विशेषता इतनी है कि क्षेत्र और कालकी अपेक्षासे उसकी सृष्टि होती है । तथा प्रजाके लिये न्यायपूर्वक वृत्ति रखना ही उनका योग्य आचरण है ॥११- १२ ॥ धर्मका उल्लंघन न कर धनका कमाना, रक्षा करना, बढ़ाना और योग्य पात्र में दान देना ही उन क्षत्रियोंका न्याय कहलाता है ||१३|| इस चार प्रकारकी प्रवृत्तिको सज्जन पुरुषोंने क्षत्रियों का न्याय कहा है तथा जैनधर्म के अनुसार प्रवृत्ति करना संसारमें सबसे उत्तम न्याय माना गया है || १४ || दिव्यमूर्तिको धारण करनेवाले श्री जिनेन्द्रदेवसे उत्पन्न होकर तीर्थ करोंको उत्पन्न करनेवाला जो रत्नत्रय है वही क्षत्रियोंकी योनि है अर्थात् क्षत्रिय पदकी प्राप्ति रत्नत्रयके प्रतापसे ही होती है । यही कारण है कि क्षत्रिय लोग अयोनिज अर्थात् बिना योनिके उत्पन्न हुए कहलाते हैं ।। १५ ।। इसलिये बड़े बड़े वंशों में उत्पन्न हुए राजा लोग लोकोत्तम पुरुष माने गये हैं । ये लोग स्वयं धर्ममार्ग में स्थित रहते हैं तथा अन्य लोगों को भी स्थित रखते हैं ॥ १६ ॥ उन क्षत्रियोंको सर्वप्रकारके प्रयत्नोंसे अपने वंशकी रक्षा करनी चाहिये । वह वंशकी रक्षा किस प्रकार करनी चाहिये यदि तुम लोग यह जानना चाहते हो तो मैं आगे कहता हूं ||१७|| बड़े बड़े वंशों में उत्पन्न होनेसे क्षत्रिय लोग स्वयं बड़प्पनमें स्थिर हैं इसलिये उन्हें अन्यमतियों के धर्ममें श्रद्धा रखकर उनके शेषाक्षत आदि ग्रहण नहीं करना चाहिये || १८ || उनके शेषाक्षत आदिके ग्रहण करने में क्या दोष है ? कदाचित् कोई यह कहे तो उसका उत्तर यह है कि उससे अपने महत्त्वका नाश होता है और अनेक विघ्न या अनिष्ट आते हैं इसलिये उनका परित्याग ही कर देना चाहिये ।। १९ ।। अन्य मतावलम्बियोंको शिरोनति करनेसे अपने महत्त्वका नाश हो जाता है इसलिये उनके शेषाक्षत आदि लेनेसे अपनी निकृष्टता हो सकती है ||२०|| संभव है द्वेष करनेवाला कोई पाखण्डी राजाके शिरपर विषपुष्प रख दे तो इस प्रकार भी उसका नाश हो सकता है ||२१|| यह भी हो सकता है कि कोई वशीकरण करनेके लिये इसके शिरपर वशीकरण पुष्प रख दे तो फिर यह राजा पागलके समान आचरण करता हुआ दूसरोंकी वश्यताको प्राप्त हो जावेगा ||२२|| इसलिये राजाओं को अन्यमतियोंके शेषाक्षत, आशीर्वाद और शान्तिवचन
१ भरत क्षेत्रावसर्पिण्यत्सर्पिरगीकाल । २- रुदाहृतः व०, ल०, म० । ३ क्षत्रियाणामुत्पत्तिस्थानम् । ४ तस्मात् कारणात् । ५ अनुकथ्यते । - दनूच्यते प०, ल०, म० । ६ शेषाक्षतस्नानोदकादिकम् । लिङ्गिनः । ६ शेषादिदातुः सकाशात् । १० मोहने निमित्ते । ११ तत् कारणात् । पुण्याहवाचनादि । १३ नीचकुलता । १४ तच्छेषादिस्वीकारप्रकारेण ।
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८ अन्य
१२ शान्तिमन्त्र
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