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महापुराणम् यथैव खलु गोपालो सन्ध्यस्थिचलने गवाम् । तदस्थि स्थापयन् प्राग्वत् कुर्याद द्योग्यां प्रतिक्रियाम् ॥१५०॥ तया न पोऽपि सङग्रामे भत्यमुख्य व्यसौ' सति । तत्पदे पुत्रमेवास्य भ्रातरं वा नियोजयेत् ॥१५१॥ सति चैवं कृतज्ञोऽयं नृप इत्यनुरक्तताम् । उपैति भृत्यवर्गोऽस्मिन् भवेच्च ध वयोधनः ॥१५२॥ यया खल्वपि गोपालः कृमिदष्टे गवाङगण । तद्योग्यमौषधं दत्वा करोत्यस्य प्रतिक्रियाम् ॥१५३॥ तथैव पृथिवीपालो दुर्विध स्वानुजीविनम् । विमनस्कं विदित्वनं सौचित्त्ये सन्नियोजयेत् ॥१५४॥ विरक्तो ह्यानुजीवी स्याद् अलब्धोचितजीवन प्रभोविमान नाच्चैवं तस्माननम् विरुक्षयेत् ॥१५॥ एतद्दौर्गत्यं व्रणस्थानकृमिसम्भवसन्निभम । विदित्वा तत्प्रतीकारम् आशु कुर्याद्विशाम्पतिः ॥१५६॥ बहुनापि न दत्तन सौचित्यमतुजीविनाम । उचितात स्वामिसन्मानाद् यथेषां जायते धृतिः ॥१५७॥ गोपालको यथा यूथे स्व महोतं भरक्षमम् । ज्ञात्वास्य नस्यकर्मादि विदध्याद् गात्रपुष्टये ॥१५॥ तथा नृपोऽपि सैन्य स्वे योद्धारं भटसत्तमम् । ज्ञात्वनं जीवनं प्राज्यं दत्वा सम्मानयत् कृती ॥१५॥ कृतापदानं तद्योग्यः सत्कारैः प्रीणयन प्रभुः। न मुच्यतेऽनुरक्तैः स्वैः अनुजीविभिरन्वहम् ॥१६०॥ यथा च गोपो गोयूथं कण्टकोपलवजिते । शीतातपादिबाधाभिः उज्झिते चारयन्" वने ॥१६१॥
आनन्दको प्राप्त होते रहते हैं-संतुष्ट बने रहते हैं ॥१४९॥ जिस प्रकार ग्वालिया संधिस्थान से गायोंकी हड्डीके विचलित हो जानेपर उस हड्डीको वहीं पैठालता हुआ उसका योग्य प्रतिकार करता है उसी प्रकार राजाको भी युद्धमें किसी मुख्य भृत्यके मर जानेपर उसके पदपर उसके पूत्र अथवा भाईको नियक्त करना चाहिये ॥१५०-१५॥ ऐसा करनेसे भत्य लोग 'यह राजा बड़ा कृतज्ञ है' ऐसा मानकर उसपर अनुराग करने लगेंगे और अवसर पड़नेपर निरन्तर युद्ध करनेवाले बन जायेंगे ॥१५२॥ कदाचित् गायोंके समुहको कोई कीड़ा काट लेता है तो जिस प्रकार ग्वालिया योग्य औषधि देकर उसका प्रतिकार करता है उसी प्रकार राजाको भी चाहिये कि वह अपने सेवकको दरिद्र अथवा खेदखिन्न जानकर उसके चित्तको संतुष्ट करे ॥१५३-१५४।। क्योंकि जिस सेवकको उचित आजीविका प्राप्त नहीं है वह अपने स्वामी के इस प्रकारके अपमानसे विरक्त हो जायगा इसलिये राजाको चाहिये कि वह कभी अपने सेवकको विरक्त न करे। ॥१५५।। सेवककी दरिद्रताको घावके स्थानमें कीड़े उत्पन्न होनेके
नकर राजाको शीघ्र ही उसका प्रतिकार करना चाहिये ॥१५६।। सेवकोंको अपने स्वामीसे उचित सन्मान पाकर जैसा संतोष होता है वैसा संतोष बहुत धन देनेपर भी नहीं होता है ॥१५७।। जिस प्रकार ग्वाला अपने पशुओंके झुण्डमें किसी बड़े बैलको अधिक भार धारण करने में समर्थ जानकर उसके शरीरकी पुष्टिके लिये नस्य कर्म आदि करता है अर्थात् उसकी नाकमें तेल डालता है और उसे खली आदि खिलाता है उसी प्रकार चतुर राजाको भी चाहिये कि वह अपनी सेनामें किसी योद्धाको अत्यन्त उत्तम जानकर उसे अच्छी आजीविका देकर सन्मानित करे ।।१५८-१५९।। जो राजा अपना पराक्रम प्रकट करनेवाले वीर पुरुषको उसके योग्य सत्कारोंसे संतुष्ट रखता है उसके भृत्य उसपर सदा अनुरक्त रहते हैं और कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ते हैं ॥१६०॥ जिस प्रकार ग्वाला अपने पशओंके समहको कांटे और पत्थरों से रहित तथा शीत और गरमी आदिकी बाधासे शून्य वनमें चराता हुआ बड़े प्रयत्नसे उसका
१ विगतप्राणे । २ नपे । ३ योद्धा । युद्धकारीत्यर्थः । ४ दरिद्रम् । ५ निजभृत्यम् । ६ शोभनचित्तत्वे । ७विरक्तोऽस्यानुजीवी। ८ जीवित । ६ अवमाननात् । १० कर्कशं न कुर्यात् । स्नेहरहितमित्यर्थः । ११ विमनस्कत्वम् । १२ महान्तमनड्वाहम् । १३ कृतपराक्रमम् । १४ भक्षणं कारयन् ।
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