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चरण तस्याहामुकम् (नगणनव प्रजानां
द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व पोषयत्यतिवलेन तथा भूपोऽप्यविप्लये। देश स्वान गतं लोकं स्थापयित्वाऽभिरक्षतु॥१६२॥ राज्यादि'परिवर्तेषु जनोऽयं पीडयतेऽन्यथा । चौरैडमिरकरन्यैरपि प्रत्यन्तनायकैः॥१६३॥ "प्रसह्य च तयाभूतान वृत्तिच्छेदेन योजयेत् । कण्टकोद्धरणेनैव प्रजानां क्षेमधारणम् ॥१६४॥ यथैव गोपः संजातं वत्सं मात्रासहामुकम् (नगम)। दिनमेकमवस्थाप्य ततोऽन्येद्युईयाधीः ॥१६॥ विधाय चरण तस्य शनैर्बन्धनसनिधिम् । नाभिनाल पुनर्गर्भनाले नापास्य यत्नतः॥१६६॥ जन्तुसम्भवशङ्कायां प्रतीकारं विधाय च । क्षीरोपयोगदानाद्यैर्वर्द्धयेत् प्रतिवासरम् ॥१६७॥ भूपोऽप्येवमुपासन्नं वृत्तये स्वमुपासितुम् । यथाऽनुरूपः सम्मानः स्वीकुर्यादनुजीविनम् ॥१६॥ स्वीकृतस्य च तस्योद्धजीवनादिप्रचिन्तया । योगक्षेमं प्रयुजीत कृतक्लेशस्य सावरम् ॥१६॥ यथैव खलु गोपालः पशून् केतुं समुद्यतः । क्षीरावलोकनायेस्तान् परीक्ष्य गुणवत्तमान् ॥१७०॥ कोणाति शकुनादीनाम् अवधारणतत्परः । कुलपुत्रानपोऽप्येवं कोणीयात् सुपरीक्षितान् ॥१७१॥ कोतांश्च वृत्तिमूल्येन तान यथावसरं प्रभः। कृत्यषु विनियञ्जीत भूत्यैः साध्यं फलं हि तत् ॥१७२॥ "यद्वच्च प्रतिभूः कश्चिद् यो क्रय प्रतिगृह्यते । बलवान् प्रतिभूस्तद्वग्राह्यो भृत्योपसङग्रहे ॥१७३॥
"याममात्रावशिष्टायां रात्रावुत्थाय यत्लतः। “चारयित्वोचिते देशे गाः प्रभूततृणोदके ॥१७४॥ पोषण करता है उसी प्रकार राजाको भी अपने सेवक लोगोंको किसी उपद्रवहीन स्थानमें रखकर उनकी रक्षा करनी चाहिये ॥१६१-१६२।। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो राज्य आदिका परिवर्तन होनेपर चोर, डाक तथा समीपवर्ती अन्य राजा लोग उसके इन सेवकोंको पीड़ा देने लगेंगे ।।१६३।। राजाको चाहिये कि वह ऐसे चोर डाक आदिकी आजीविका जबरन नष्ट कर दे क्योंकि कांटोंको दूर कर देनेसे ही प्रजाका कल्याण हो सकता है ॥१६४।। जिस प्रकार ग्वाला हालके उत्पन्न हुए बच्चेको एक दिन तक माताके साथ रखता है, दूसरे दिन दयाबुद्धिसे मुक्त हो उसके पैर में धीरेसे रस्सी बांधकर खंटीसे बांधता है, उसकी जरायु तथा नाभिके नालको
ड़े यत्नसे दूर करता है, कीड़े उत्पन्न होनेकी शंका होने पर उसका प्रतीकार करता है, और दूध पिलाना आदि उपायोंसे उसे प्रतिदिन बढाता है ।।१६५-१६७।। उसी प्रकार राजाको भी चाहिये कि वह आजीविकाके अर्थ अपनी सेवा करने के लिये आये हुए सेवकको उसके योग्य आदर सन्मानसे स्वीकृत करे और जिन्हें स्वीकृत कर लिया है तथा जो अपने लिये क्लेश सहन करते हैं ऐसे उन सेवकोंकी प्रशस्त आजीविका आदिका विचार कर उनके साथ योग और क्षेमका प्रयोग करना चाहिये अर्थात् जो वस्तु उनके पास नहीं है वह उन्हें देनी चाहिये और जो वस्तु उनके पास है उसकी रक्षा करनी चाहिये ॥१६८-१६९। जिस प्रकार शकुन आदि के निश्चय करनेमें तत्पर रहनेवाला ग्वाला जब पशुओंको खरीदने के लिये तैयार होता है तब वह दूध देखना आदि उपायोंसे परीक्षा कर उनमेंसे अत्यन्त गुणी पशुओंको खरीदता है उसी प्रकार राजाको भी परीक्षा किये हुए उच्चकुलीन पुत्रोंको खरीदना चाहिये ।।१७०-१७१।। और आजीविकाके मूल्यसे खरीदे हुए उन सेवकोंको समयानुसार योग्य कार्य में लगा देना चाहिये क्योंकि वह कार्यरूपी फल सेवकोंके द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है ॥१७२॥ जिस प्रकार पशुओंके खरीदने में किसीको जामिनदार बनाया जाता है उसी प्रकार सेवकोंका संग्रह करने में भी किसी बलवान् पुरुषको जामिनदार बनाना चाहिये ।।१७३।। जिस प्रकार ग्वाला रात्रिके
१ मूलबलम् । २-रक्षयेत् ल०, म०। ३ परिवर्तेऽस्य ल०, म० । राज्यादि मुक्त्वा राज्यान्तरप्राप्तिषु। ४ अरक्षणप्रकारेण । ५ घाटीकारैः युद्धकारिभिर्वा । ६ म्लेच्छनायकैः । ७ हठात्कारेण । ८ वत्सस्य । ६ जरायुना। १० जीवनाय। ११ सेवां कर्तुम्। १२ क्रयणाय । १३ अतिशयेन गुणवतः । १४ कार्येषु। १५ यथैव ल०, म० । १६ धरकः । १७ प्रहर। १८ भक्षयित्वा ।
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