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महापुराणम् इति सामादिभिः 'स्वोक्तरशान्तमवगम्य तम् । प्रत्येत्य तत्तथा सर्वम् प्राश्ववाजी गमनपम् ॥६॥ काशिराजस्तवाकर्ण्य विषादचलिताशयः। महामोहाहितों' वाऽऽसीद् दुष्कार्य को न मुह्यति ॥१०॥ 'अत्र चिन्त्यं न वः किञ्चिन्यायस्तेनैव लडघितः। 'तिष्ठतेहैव संरक्ष्य सुनियुक्ताः' सुलोचनाम् ॥६१ इदानीमेव दुर्वत्तं शुद्धखलालिङगनोत्सुकम् । शाखामृगमिवानेष्ये बध्वा दाराततायिनम् ॥१२॥ इत्युदीर्य जयो मेघकुमारविजयाजिताम् । मेघघोषाभिधां भेरी १९प्रष्ठेनास्फोटयद रुषा ॥३॥
द्रोणादिप्रक्षयारम्भघनाघनघनध्वनिम् । तद्ध्वनिप्प" निजित्य निर्भिद्य हृदयं द्विषाम् ॥१४॥ तद्रवाकर्णनाद घृणितावप्रतिमे५ बले। प्रतिवेलोत्सवोऽत्रासीदुत्सवो विजय" यथा ॥५॥ तदोद्भिन्नकटप्रान्तप्रक्षरन्मदपायिनः । स्वमेदेनेव मातडगाः प्रोत्तुङगाः प्रोन्मदिष्णवः ॥१६॥ सुस्वनन्तः खनन्तः खं वाजिनो वायुरहसः" । कृतोत्साहा रणोत्साहाद् रेजुस्तेजस्विता हि सा ॥७॥
और आगमको झूठा मत कीजिये । भावार्थ-लड़कर असमयमें ही प्रलय काल न ला दीजिये। दूतने इस प्रकार बहुतसे साम, दान आदिके वचन कहे परन्तु तो भी उसे अशान्त जानकर वह लौट आया और शीघ्र ही ज्योंके त्यों सब समाचार अकंपनसे कह दिये ।।८८-८९॥ उन समाचारोंको सुनकर काशीराज अकंपनका चित्त विषादसे विचलित हो उठा और वे स्वयं महामोहसे मूच्छित हो गये सो ठीक ही है क्योंकि बुरे कामोंमें कौन मूच्छित नहीं होता ॥९०॥ जयकुमारने अकंपनको चिन्तित देखकर कहा कि इस विषयमें हम लोगोंको कुछ भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकि न्यायका उल्लंघन उसीने किया है, आप सावधान होकर सुलोचना की रक्षा करते हुए यहीं रहिये । दुराचारी, स्त्रियोंपर उपद्रव करनेवाले और इसलिये ही सांकलोंसे आलिंगन करनेकी इच्छा करनेवाले उस अर्ककीतिको बंदरके समान बांधकर मैं अभी लाता हूँ॥९१-९२॥ इस प्रकार कहकर जयकुमारने क्रोधमें आकर, यद्ध में आगे जानेवाले पुरुषके द्वारा मेघकुमारोंको जीतनेसे प्राप्त हुई मेघघोषा नामकी भेरी बजवाई ॥९३॥ प्रलयकालके प्रारम्भमें प्रकट होनेवाले द्रोण आदि मेघोंकी घोर गर्जनाको जीतकर तथा शत्रुओं का हृदय विदारणकर वह भेरीकी आवाज सब ओर फैल गई ॥९४॥ जिस प्रकार शत्रुके विजय करनेपर उत्सव होता है उसी प्रकार उस भेरीका शब्द सुनकर लहराते हुए समुद्रके समान चंचल जयकुमारकी सेनामें माला डालनेके उत्सवसे भी कहीं अधिक उत्सव होने लगा ॥९५॥ उस समय फटे हुए गण्डस्थलके समीपसे झरते हुए मदका पान करनेवाले और अपने उसी मदसे ही मानो उन्मत्त हुए ऊंचे ऊंचे हाथी युद्धके उत्साहसे सुशोभित हो रहे थे । तथा इसी प्रकार अच्छी तरह हींसते हुए, पैरोंसे आकाशको खोदते हुए और वायुके समान वेगवाले उत्साही घोड़े भी युद्धके उत्साहसे सुशोभित हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उनका तेजस्वीपना
१ सोक्तैः ट० । वचनसहितः । २ शीघ्र ज्ञापितवान् । ३ अकम्पनः । ४ महामू गृहीत इव । ५ अत्र कार्ये । ६ अर्ककीर्तिनैव । ७ निवसत । ८ राजभवने । ६ सावधानाः भूत्वा । १० दाराततायनम् ट० । दारेषु कृतागमनम्। स्त्रीनिमित्तमागतमर्ककीर्तिमित्यर्थः । दाराततायिनमिति पाठे दारार्थं वधोद्यतम् । 'आततायी वधोद्यतः' इत्यभिधानात् । ११ अग्रगामिना पुरुषेण । १२ आस्फालनं कारयति स्म । प्रष्ठेनास्फालयद् ल०, अ०, प०, इ०, स० । १३ द्रोणादि द्रोणकालपुष्करादि । प्रक्षयारम्भ प्रलयकालप्रारम्भ । द्रोणादयश्च ते प्रक्षयारम्भघनाघनास्तेषां ध्वनिम् । १४ व्याप्नोति स्म । १५ समाने। "प्रतिमानं प्रतिबिम्बं प्रतिमा प्रतिमानना प्रतिच्छाया। प्रतिकृतिरर्चा पुंसि प्रतिनिधिरुपमोपमानं स्यात्।" १६ अधिकोत्सवः । 'अतिवेलभृशात्यतिमात्रं गाढ़निर्भरम्' इत्यभिधानात् । अतिमालोत्सवो ल०, १०, १०, इ०। १७ दिग्विजये । १८ पवनवेगाः। १६ कृतोद्योगाः ।
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