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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
रथाः प्रागिव' पर्याप्ताः पूर्णसर्वायुधायुधः । महावाहसमायुक्ताः प्रनृत्यत्केतुबाहवः ॥ ६८ ॥ योषितोऽप्यभटायन्त' पाटवात् संयुगं प्रति । ततः ' ' प्रतिबलात्तत्र' भूयांसो वा पदातयः । ६६॥ वर्द्धमानो ध्वनिस्तु रणरङ्ग भविष्यतः । वीरलक्ष्मीप्रवृत्तस्य प्रोद्ययौ गुणयन्निव ॥१००॥ वनान्वयं वयशिक्षालक्षणैर्वीक्ष्य विग्रहम्" । सुवर्माणं सुधर्माणं कामवन्तं " क्षरन्मदम् ॥१०१॥ सामजं विजयार्द्धाख्यं विजयार्द्धमिवापरम् । बहुशो दृष्टसङग्रामं गजध्वजविराजितम् ॥१०२॥ अधिष्ठाय " जयः सर्वसाधनेन सहानुजः । निर्जगाम युगप्रान्तकाललीलां विलङ्घयन् ॥१०३॥ कुर्वन्ती शान्तिपूजां त्वं तिष्ठ मात्रेति" सादरम् । प्रवेश्य चैत्यधामायं" सुतां नित्यमनोहरम् ॥ १०४ ॥ समग्रबलसम्पत्या चचाल चलयन्निलाम् । श्रकम्पः कम्पितारातिः साकम्पनिरकम्पनः ॥ १०५ ॥ सुकेतुः सूर्य मित्राख्यः श्रीधरो जयवर्मणा । देवकीर्तिर्जयं जग्मुरिति भूपाः ससाधनाः ॥ १०६॥ इमे मुकुटबद्वेष पञ्च विख्यातकीर्तयः । परं च शूरा नाथेन्दुवंशगृहयाः " समाययुः ॥ १०७॥ मेघप्रभश्च चण्डासिप्रभाव्याप्तवियत्तलः । विद्याबलोद्धतः सार्द्धमद्धं विद्याधरैरगात् ॥ १०८ ॥
वही था ।। ९६-९७ ।। जो सब प्रकारके शस्त्रोंसे पूर्ण हैं, जिनमें बड़े बड़े घोड़े जुते हुए हैं, और जिनकी ध्वजारूपी भुजाएं नृत्य कर रही हैं ऐसे युद्धके रथ पहले के समान ही सब ओर फैल रहे थे ।। ९८ ।। जयकुमारकी सेनामें युद्धमें चतुर होनेके कारण स्त्रियां भी योद्धाओंके समान आचरण करती थीं इसलिये अन्य राजाओंकी अपेक्षा उसकी पैदल सेनाकी संख्या अधिक थी ।। ९९ ।। उस समय जो बाजोंका शब्द बढ़ रहा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो रणके मैदानमें जो वीरलक्ष्मीका उत्तम नृत्य होने वाला है उसे कई गुना करता हुआ ही बढ़ रहा हो ॥१००॥ तदनन्तर - जो वनमें उत्पन्न हुआ है, वय, शिक्षा और अच्छे अच्छे लक्षणोंसे जिसका शरीर देखने योग्य है, जिसका स्वभाव अच्छा है, शरीर अच्छा है, जो कामवान् है, जिसके मद कर रहा है, जिसने अनेक बार युद्ध देखे हैं, जो हाथीके चिह्नवाली ध्वजाओंसे सुशोभित है और दूसरे विजयार्ध पर्वतके समान जान पड़ता है ऐसे विजयार्ध नामके हाथी पर सवार होकर वह जयकुमार सब सेना और सब छोटे भाईयोंके साथ साथ युगके अन्त कालकी लोलाको उल्लंघन करता हुआ निकला ।।१०१-१०३ ।। इधर शत्रुओंको कम्पित करनेवाले और स्वयं अकंप (निश्चल) रहनेवाले महाराज अकम्पनने भी 'तू अपनी माताके साथ आदरपूर्वक शान्तिपूजा करती हुई बैठ' इस प्रकार कहकर पुत्री सुलोचनाको नित्यमनोहर नामके उत्तम चैत्यालय में पहुंचाया और स्वयं अपने पुत्रोंको साथ लेकर समस्त सेनारूपी सम्पत्तिके द्वारा पृथिवीको कपाते हुए निकले । १०४ - १०५ ।। सुकेतु, सूर्यमित्र, श्रीधर, जयवर्मा और देवकीर्ति ये सब राजा अपनी अपनी सेनाओंके साथ जयकुमारसे जा मिले ||१०६ || मुकुटबद्ध राजाओं में जिनकी कीर्ति अत्यन्त प्रसिद्ध है ऐसे ऊपर कहे हुए सुकेतु आदि पांच राजा तथा नाथवंश और सोमवंशके आश्रित रहनेवाले अन्य शूरवीर लोग, सभी जयकुमारसे आ मिले ||१०७॥ | जिसने अपनी तीक्ष्ण तलवारकी प्रभासे आकाशतलको व्याप्त कर लिया है और जो विद्याके बलसे
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१ दिग्विजये यथा । २ समन्तात् प्राप्ताः । पर्यस्ताः ल० । ३ रणस्य । पूर्णसर्वायुधायुध इति समस्तपदपक्षे पूर्णसर्वायुधानि च भटाश्च येषु ते । ४ भटा इवाचरिताः । ५ युद्धं प्रति । ६ ततः कारणात् । ७ प्रतिबले विलोक्यमाने सतीत्यर्थः । ८ जयकुमारबले । ६ इव । ११ दर्शनीयमूर्तिम् । १२ सुवर्मारणं सुवर्मारणं अ०, प०, स०, इ० 1 १४ आरोहकस्य वशवर्तिगमनवन्तम् ।
१० अतिशयं कुर्वन्निव । सुधर्मारणं सुवर्मारणं ल० । १५ गजरूपध्वज । १६ आरुह्य |
१३ शोभनस्वभावम् । १७ जनन्या सह । १८ श्रेष्ठम् । १६ भूमिम् । २० अकम्पनस्यापत्यानि आकम्पनयस्तैः सहितः ।
२१ नाथवंशसोमवंशश्रिताः ।
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