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महापुराणम् बलं विभज्य भूभागे विशाले सकलं समे । प्रकृत्य' मकरव्यह विरोधिबलघस्मरः ॥१०॥ उच्चजिततूयौं घनिर्यनिर्घोषभीषणः' । जितमेघस्वरो गर्जन रेजे मेघस्वरस्तदा ॥११०॥ चक्रव्यूह विभक्तात्मभूरिसाधनमध्यगः । अर्ककोतिश्च भाति स्म परिवेषाहितार्कवत् ॥१११॥ क्रुद्धाः खे खेचराधीशाः सुनमिप्रमुखाः पृथक् । गरुडव्यूहमापाद्य तस्थुश्चक्रिसुताज्ञया ॥११२॥ अष्टचन्द्राः खगाः ख्याताश्चक्रिणः परितः सुतम् । शरीररक्षकत्वेन भेजुविद्यामदोद्धताः ॥११३॥ अकालप्रलयारम्भजृम्भिताम्भोदर्गाजतम् । निजित्य तूर्णं तूर्याणि दध्वनुः सेनयोः समम् ॥११४॥ धानुष्कर्मार्ग णैर्मार्गः समरस्य पुरस्सरैः । प्रवर्तयितुमारेभे घोरघोषैः सबल्गितम् ॥११॥ सङग्रामनाटकारम्भ सूत्रधारा धनुर्धराः। रणरङग विशन्ति स्म गर्जत्तूर्य पुरस्सरम् ॥११६॥ प्राबध्य स्थानक० पूर्व रणरङगे धनुर्धरैः । पुष्पाञ्जलिरिव व्यस्तो मक्तः शितशरोत्करः ॥११७॥
तीक्ष्णा मर्माण्यभिघ्नन्तः पूर्व कलहकारिणः। पश्चात्प्रवेशिनः१३ शश्वत् खलकल्पा "धनुर्धतः ॥११८॥ उद्धत हो रहा है ऐसा मेवप्रभ नामका विद्याधर भी अपने आधे विद्याधरोंके साथ निकला ॥१०८॥ जो शत्रुओंकी सेनाको नष्ट करनेवाला है, बड़े बड़े बाजोंके समूहसे निकलती हुई आवाजके समान भयंकर है और जिसने अपनी आवाजसे मेघोंकी गर्जनाको भी जीत लिया है ऐसा जयकुमार उस समय विशाल और सम (ऊंची नीची रहित) पृथ्वीपर अपनी समस्त सेनाका विभागकर तथा मकरव्यूहकी रचनाकर गर्जता हुआ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ॥१०९-११०॥ उधर चक्रव्यूहकी रचनाकर अपनी बहुत भारी सेनाके बीच खड़ा हुआ अर्ककीति भी परिवेषसे युक्त सूर्यके समान सुशोभित हो रहा था ।।१११।। क्रोधित हुए सुनमि आदि विद्याधरोंके अधिपति भी गरुड़व्यहकी रचनाकर चक्रवर्तीके पुत्र-अर्ककीतिकी आज्ञासे आकाशमें अलग ही खड़े थे ॥११२।। विद्याके मदसे उद्धत हुए आट चन्द्र नामके प्रसिद्ध विद्याधर शरीररक्षकके रूपमें चारों ओरसे अर्ककीतिकी सेवा कर रहे थे ॥११३॥ उन दोनों सेनाओंमें असामयिक प्रलयकालके प्रारम्भमें बढ़ती हुई मेवोंकी गर्जनाको जीतकर शीघ्र शीघ्र एक साथ बहुतसे बाजे बज रहे थे ॥११४॥ युद्धके आगे आगे जानेवाले और भयंकर गर्जना करनेवाले धनुर्धारी योद्धाओंने वाणों द्वारा अपना मार्ग बनाना प्रारम्भ किया था। भावार्थ-धनुष चलानेवाले योद्धा वाण चलाकर भीड़को तितर बितर कर अपना मार्ग बना रहे थे ॥११५॥ जो संग्रामरूपी नाटकके प्रारम्भमें सूत्रधारके समान जान पड़ते थे ऐसे धनुष को धारण करनेवाले वीर पुरुष गर्जते हुए बाजोंको आगे कर युद्धरूपी रंगभूमिमें प्रवेश कर रहे
१६॥ धनुष धारण करनेवाले पुरुषोंने रणरूपी रंगभूमिमें सबसे पहले अपना स्थान जमा कर जो तीक्ष्ण वाणोंका समह छोड़ा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो उन्होंने पूष्पाञ्जलि ही विखेरी हो ॥११७।। वे धनुषपर चढ़ाये हुए वाण सदा दुष्टोंके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार दुष्ट तीक्ष्ण अर्थात् क्रूर स्वभाववाले होते हैं उसी प्रकार वे वाण भी तीक्ष्ण अर्थात् पैने थे, जिस प्रकार दुष्ट मर्मभेदन करते हैं उसी प्रकार वाण भी मर्मभेदन करते थे, जिस प्रकार दुष्ट कलह करनेवाले होते हैं उसी प्रकार वाण भी कलह करनेवाले थे और जिस प्रकार दुष्ट पहले मधुर वचन कह कर फिर भीतर घूस जाते हैं उसी प्रकार वे वाण भी मनोहर शब्द
१ कृत्वा । २ मकरसमूहरचनाविशेषम् । ३ विनाशक इत्यर्थः । ४ निर्घोषभीषणं यथा भवति तथा । ५ विभक्त्यात्म-प०, ल०। ६ प्राप्त । ७ अष्टचन्द्राख्याः । ८ वाणैः । ६ क्रियाविशेषणम्। उतलवनसहितं यथा । १० आलीढप्रत्यालीढादि । ११ क्षिप्तः । १२ निशात । १३ शरीरं प्रवेशिनः । १४ बाणाः।
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