________________
चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व
३९३ शिक्षिताः बलिनः शूराः शूरारूढाः सकेतवः । गजाः समन्तात् सन्नाहयाः प्राक्चेलुरचलोपमाः ॥७॥ तुरङगमास्तरङगाभाः सङग्रामाब्धेः सवर्मकाः । अनुदन्ति नदन्तोऽयान' विक्रामन्तः समन्ततः ॥७९॥ सचक्रं धेहि संयोज्य सवरं 'प्राज वाजिनः । इति सम्भ्रमिणोऽपप्तन् रथास्तदनु सध्वजाः ॥८॥ चण्डाः कोदण्डकुन्तासिप्रासचक्रादिभीकराः। यान्ति स्मानुरथं क्रुद्धा रुद्धदिक्काः पदातयः ॥१॥ गजं गजस्तदोद्धव्य बाहो वाहं रथं रथः । पदातयश्च पादान्तं सम्मानिर्ययुटुंधर ॥२॥ प्रारूढानेकपानेकभूपालपरिवारितः। भेरीनिष्ठुरनिर्घोषभीषिताशेषदिग्द्विपः ॥८३॥ चक्रध्वज समुत्थाप्य सम्यगाविष्कृतोन्नतिः। गजं विजयघोषाख्यम् आरुह्याद्रिवरोत्तमम् ॥८४॥ अर्ककीर्तिर्बहिर्भास्वदर"युद्यतभटावृतः । ज्योतिः कलाचलर्वार्कश्चचालाभ्यचलाधिपम्५ ॥८॥ किंवदन्ती विदित्वैतां सुपो भूत्वा कलाकुलः । स्वालोचितं च कर्तव्यं विधिना क्रियतेऽन्यथा ॥८६॥ इति स्वसचिवैः सार्धम् आलोच्य च जयादिभिः। प्रत्यर्ककीर्त्यथा दिक्षद्र दूतं सम्प्राप्य सत्वरम् ॥७॥
कुमार तव किं युक्तम् एवं सीमातिलज्धनम् । प्रसीद प्रलयोर दूरं तन्मा कार्कमषागमम् ॥८॥ था मानो कालको बुलानेके लिये ही उठा हो ॥७३-७७॥ उस समय जो शिक्षित हैं, बलवान् हैं, शूरवीर हैं, जिनपर योद्धा बैठे हुए हैं, पताकाएं फहरा रही हैं, जो सब तरहसे तैयार हैं और पर्वतोंके समान ऊंचे हैं ऐसे हाथी सब ओरसे आगे आगे चल रहे थे ।।७८॥ जो संग्रामरूपी समुद्रकी लहरोंके समान हैं, कवच पहने हुए हैं, हींस रहे हैं और कूद रहे हैं ऐसे घोड़े उन हाथियों के पीछे पीछे चारों ओर जा रहे थे ॥७९॥ पहिये जल्दी लगाओ, धराको ठीककर जल्दी लगाओ, इस प्रकार कुछ जल्दी करनेवाले, तथा जिनमें शीघ्रगामी घोड़े जुते हुए हैं और ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे रथ उन घोड़ोंके पीछे पीछे जा रहे थे ॥८०।। उन रथोंके पीछे धनुष, भाला, तलवार, प्रास और चक्र आदि शस्त्रोंसे भयंकर, फैलकर सब दिशाओंको रोकनेवाले, क्रोधी
और बलवान् पैदल सेनाके लोग जा रहे थे ॥८१॥ उस समय हाथी हाथीको, घोड़ा घोड़ाको, रथ रथको और पैदल पैदलको धक्का देकर युद्ध के लिये जल्दी जल्दी जा रहे थे ॥८२॥ तदनन्तर-हाथियोंपर चढ़े हुए अनेक राजाओंसे घिरा हुआ, नगाड़ोंके कठोर शब्दोंसे समस्त दिग्गजोंको भयभीत करनेवाला, चक्रके चिह्नवाली ध्वजाको ऊंचा उठाकर अपनी ऊंचाईको अच्छी तरह प्रकट करनेवाला और चमकीली तलवार हाथमें लिये हुए योद्धाओंसे आवृत अर्ककीति, मेरु पर्वतके समान उत्तम विजयघोष नामक हाथीपर सवार हो अचलाधिप (अचला अधिप) अर्थात् पृथ्वीके अधिपति राजा अकंपनकी ओर इस प्रकार चला मानो ज्योतिर्मण्डल और कुलाचलोंके साथ साथ सूर्य ही अचलाधिप (अचल. अधिप) अर्थात् सुमेरुकी ओर चला हो ।।८३-८५।। महाराज अकंपन यह बात जानकर बहुत ही व्याकुल हुए और सोचने
तरह विचारकर किया हुआ कार्य भी दैवके द्वारा उल्टा कर दि इस प्रकार उन्होंने अपने मंत्री तथा जयकुमार आदिके साथ विचारकर अर्ककीर्तिके प्रति शीघ्र ही एक शीघ्रगामी दूत भेजा ॥८६-८७।। दूतने जाकर कहा कि हे कुमार, क्या तुम्हें इस प्रकार सीमाका उल्लंघन करना उचित है ? प्रलयकाल अभी दूर है इसलिये प्रसन्न हूजिये
१ संनद्धाः कृताः। २ तनुत्रसहिताः। ३ दन्तिनां पश्चात् । ४ ध्वनन्तः । ५ अगच्छन् । ६ लङघनं कुर्वन्तः । ७ चक्रेण सह किश्चिद् धेहि धारय । ८ धुरा सह किञ्चिद् धेहि। ६ प्रेरय । १० आशुप्रधावने प्रयुक्ताः । त्वरावन्तः । ११ अगच्छन् । १२ अश्वः । 'वाहोऽश्वस्तुरगो वाजी हयो धुर्यस्तुरङगमः' इति धनञ्जयः । १३ संग्रामनिमित्तम् । १४ उद्धृतासि । १५ अकम्पनं महाराज प्रति । मेरं च । १६ जनवार्ताम् । १७ अधिकाकुलः। १८ सुष्ठवालोचितम् । १६ कार्यम् । २० अर्ककीर्ति प्रति । २१ प्राहिणोत् । २२ प्रलयः षष्ठकालान्ते भवतीत्यागमम् । मृषा मा कुरु ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org