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चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व सर्वमेतत् समाकर्ण्य बुद्धि कर्मानुसारिणीम् । स्पष्टयन्निव दुर्बुद्धिरिति प्रत्याह भारतीम् ॥५५॥ अस्ति स्वयंवरः पन्थाः परिणीतौ चिरन्तनः । पितामहकृतो मान्यो वयोज्येष्ठस्त्वकम्पनः ॥५६॥ किन्तु सोऽयं जयस्नेहात्तस्योत्कर्ष चिकीर्षुकः । स्वसुतायाश्च सौभाग्यप्रतीतिप्रविधित्सुकः ॥१७॥ सर्वभूपालसन्बोहसमाविर्भावितोदयात् । स्वयं चक्रीयितु चैव व्यधत्त कपट शठः ॥५८॥ प्राक्समथितमन्त्रण "प्रदायास्मै स्वचेतसा । कृतसंकेतया माला सुतयाऽऽरोपिता मृषा ॥५६॥ युगादौ कुलवृद्धन मायेय सम्प्रवतिता । मयाद्य यापेक्ष्येत कल्पान्ते नैव वार्यते ॥६०॥ न चक्रिणोऽपि कोपाय स्यादन्यायनिषेधनम् । प्रवर्तयत्यसौ दण्डं मय्यप्यन्यायतिनि ॥६॥ जयोऽप्येवं समुसिक्तस्तत्पट्टेन च मालया। प्रतिस्वं लब्धरन्धो मां करोत्यारम्भकम्पुरा ॥६२॥
समूलतूलमुच्छिद्य सर्वद्विषम युधि । अनुरागं जनिष्यामि राजन्यानां मयि स्थिरम् ॥६३॥ द्विधा भवतु वा मा वा बलं ते न किमाशुगाः । माला प्रत्यानयिष्यन्ति जयवक्षो विभिद्य मे ॥६४॥
नाहं सुलोचनार्थ्यस्मि मत्सरी मच्छरैरयम् । "परासु रधुनैव स्यात् किं मे विधवया त्वया ॥६५॥ अनवद्यमति मंत्रीका वचनरूपी जल यद्यपि नीतिरूपी लताको बढ़ानेवाला था तथापि उसने तपे हुए तेलके समान अर्ककीर्तिके चित्तको और भी अधिक क्षोभित कर दिया था ॥५४॥ यह सब सुनकर 'बुद्धि कर्मों के अनुसार ही होती है,' इस बातको स्पष्ट करता हुआ वह दुर्बुद्धि इस प्रकार वचन कहने लगा ॥५५।। मैं मानता हूँ कि विवाहकी विधियों में स्वयंवर ही पुरातन मार्ग है और यह भी स्वीकार करता हूँ कि हमारे पितामह भगवान् वृषभदेवके द्वारा स्थापित होने तथा वयमें ज्येष्ठ होने के कारण अकम्पन महाराज मेरे मान्य हैं परन्तु वह जयकुमारपर स्नेह होनेसे उसीका उत्कर्ष करना चाहता है और सबपर अपनी पुत्रीके सौभाग्यकी प्रतीति करना चाहता है। समस्त राजाओंके समहके द्वारा प्रकट हए बड़प्पनसे अपने आपको चक्रवर्ती बनानेसे लिये ही उस मूर्खने यह कपट किया है ॥५६-५८॥ 'यह कन्या जयकुमारको ही देनी है' ऐसी सलाह अकंपन पहले ही कर चुका था और उसी सलाहके अनुसार अपने हृदयसे जयकुमारके लिये कन्या दे भी चुका था परन्तु यह सब छिपानेके लिये जिसे पहले ही संकेत किया गया है ऐसी पूत्रीके द्वारा उसने यह माला झठमठ ही डलवाई है ॥५९॥ यगके आदि में उच्चकुलीन अकम्पनके द्वारा की हुई इस मायाकी यदि आज मैं उपेक्षा कर दूं तो फिर कल्पकालके अन्ततक भी इसका निवारण नहीं हो सकेगा ॥६०॥ अन्यायका निराकरण करना चक्रवतीक भी क्रोधके लिय नहीं हो सकता क्योकि जब में अन्यायम प्रवृत्ति कर बैठता ह तब वे मझे भी तो दण्ड देते हैं। भावार्थ-चक्रवर्ती अन्यायको पसन्द नहीं करते हैं, और मैं भी अन्यायका ही निराकरण कर रहा है इसलिये वे मेरे इस कार्यपर क्रोध नहीं करेंगे ॥६१।। यह जयकुमार भी पहले वीरपट्ट बांधनेसे और अब मालाके पड़ जानेसे बहुत ही अभिमानी हो रहा है। यह छिद्र पाकर पहलेसे ही मेरे लिये कुछ न कुछ आरम्भ करता ही रहता है ॥२॥ यह सबका शत्रु है इसलिये युद्ध में इसे आमूलचूल नष्टकर सब राजाओंका स्थिर प्रेम अपनेमें ही उत्पन्न करूंगा ॥६३।। सेना फूटकर दो भागोंमें विभक्त हो जाय अथवा न भी हो, उससे मझे क्या ? मेरे वाण ही जयकुमारका वक्षःस्थल भेदनकर वरमालाको ले आवेंगे। ॥६४॥ में सुलोचनाको भी नहीं चाहता क्योंकि सबसे ईर्ष्या करनेवाला यह जयकुमार मेरे वाणोंसे अभी
१ विवाहे। २ अभ्युदयं प्राप्यमाश्रित्य। ३ चक्रीवाचरितुम् ॥ ४ मायावी। ५ दत्त्वा । ६ अकम्पनेन । ७ –पेक्षेत ल०। ८ --प्येनं ल०९ गर्वितः। १० वीरपट्टेन । ११ प्राप्तावसरः । १२ व्यापारम् । १३ कारणसहितम् । १४ शराः । १५ मत्सरवान् । १६ मम बाणैः । १७ गतप्राणः । 'पराशुप्राप्तपञ्चत्वपरेतप्रेतसंस्थिताः।' इत्यभिधानात् ।
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