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चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व
सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः । विवाहविधिभेदेषु वरिष्ठो' हि स्वयंवरः ॥ ३२॥ यदि स्यात् सर्वसम्प्रार्थ्या कन्येका पुण्यभाजनम् । अविरोधो 'व्यधाय्यत्र देवायत्तो विधिर्बुधैः ॥ ३३ ॥ मध्ये महाकुलीनेषु कञ्चिदेकमभीप्सितम् । सलक्ष्मीकमलक्ष्मीकं गुणितं गुणदुर्गतम् ॥ ३४ ॥ विरूपं रूपिणं चापि वृणीतेऽसौ विधेर्वशात् । न तत्र मत्सरः कार्यः शेषे न्ययोऽयमीदृशः ॥ ३५॥ astra यदि केनापि न्यायो रक्ष्यस्त्वयैव सः । नेदं तवोचितं क्वापि पाता स्यात्पारिपान्थिकः ॥ ३६॥ भवत्कुलाचलस्योभौ नाथसोमान्वयौ पुरा । मेरोनिषधनीलौ वा सत्यक्षौ पुरुणा कृतौ ॥३७॥ सकल क्षत्रियज्येष्ठः पूज्योऽयं राजराजवत् । श्रकम्पनमहाराजो राजेव ज्योतिषां गणैः ॥ ३८ ॥ निविशेष' पुरोरेनं मन्यते भरतेश्वरः । पूज्यातिलङ्घनं प्राहुरुभय" बाशुभावहम् ॥३६॥ पश्य तादृश एवात्र सोमवंशोऽपि कथ्यते । धर्मतीर्थं भवद्वंशाद् दानतीर्थं "ततो यतः ॥४०॥ पुरस्सरणमात्रेण इलाध्यं चक्रं विशां विभोः ३ । प्रायो दुस्साधसंसिद्धौ श्लाघते जयमेव सः ॥४१॥ १५ एतस्य दिग्जये सर्वेद् ष्टमेवेह पौरुषम् । अनेन वः कृतः प्रेषः १७ स्मर्तव्यो ननु स त्वया ॥४२॥ ज्ञात्वा " सम्भाव्यशौर्योऽपि स मान्यो भर्तभिर्भटः । दृष्टसारः स्वसाध्येऽर्थे साधितार्थः किमुच्यते ॥४३॥ चलती है और पुराने न्यायमार्गकी रक्षा होती है ॥ ३१ ॥ विवाहविधिके सब भेदों में यह स्वयंवर ही श्रेष्ठ है। श्रुतियों और स्मृतियोंमें कहा गया यह स्वयंवर ही सनातन (प्राचीन) मार्ग है ||३२|| यदि पुण्यके पात्र स्वरूप किसी एक कन्याकी याचना सब मनुष्य करने लग जायं तो उस समय परस्परका विरोध दूर करनेके लिये विद्वानोंने केवल भाग्यके आधीन होनेवाली इस स्वयंवर विधिका विधान किया है ||३३|| बड़े बड़े कुलोंमें उत्पन्न हुए पुरुषोंके मध्य में वह कन्या भाग्यवश अपनी इच्छानुसार किसी एकको स्वीकार करती है चाहे वह लक्ष्मीसहित हो या लक्ष्मी रहित, गुणवान् हो या निर्गुण, सुरूप हो या कुरूप । अन्य लोगोंको इसमें ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये क्योंकि यह ऐसा ही न्याय है || ३४-३५ ॥ यदि किसीके द्वारा इस न्याय का उल्लंघन किया जाय तो तुम्हें ही इसकी रक्षा करनी चाहिये इसलिये यह सब तुम्हारे लिये उचित नहीं है । क्या कभी रक्षक भी चोर या शत्रु होता है || ३६ || जिस प्रकार निषध और नील कुलाचल मेरुपर्वतके उत्तम पक्ष हैं उसी प्रकार भगवान् आदिनाथने पहले नाथवंश और चन्द्रवंश दोनों ही आपके कुलरूपी पर्वतके उत्तम पक्ष अर्थात् सहायक बनाये थे ||३७|| जिस प्रकार चन्द्रमा समस्त ज्योतिषी देवोंके समूहके द्वारा पूज्य है उसी प्रकार समस्त क्षत्रियोंमें बड़े महाराज अकंपन भी भरत चक्रवर्ती के समान सबके द्वारा पूज्य हैं ||३८|| महाराज भरत इन अकंपनको भगवान् वृषभदेवके समान ही मानते हैं इसलिये तुम्हें भी इनके प्रति नम्रता का व्यवहार करना चाहिये क्योंकि पूज्य पुरुषोंका उल्लंघन करना दोनों लोकोंमें अकल्याण करनेवाला कहा गया है ||३९|| और देखो यह सोमवंश भी नाथवंशके समान ही कहा जाता है । क्योंकि जिस प्रकार तुम्हारे वंशसे धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति हुई है उसी प्रकार सोमवंशसे दानतीर्थकी प्रवृत्ति हुई है ॥४०॥ चक्रवर्तीका चक्ररत्न आगे आगे चलने मात्र से प्रशंसनीय अवश्य है परन्तु कठिनाई से सिद्ध होने योग्य कार्यों में वे प्रायः जयकुमार की ही प्रशंसा करते हैं ॥४१॥ दिग्विजयके समय इसका पुरुषार्थ संसारमें सबने देखा था । उस समय इसने जो पराक्रम दिखाया था वह भी तुम्हें याद रखना चाहिये ॥ ४२ ॥ | जिस योद्धामें शूरवीरपनेकी संभावना हो राजाओं
१ अतिशयेन वरः । २ कृतः । ३ - देकं समीप्सितम् ल०, म० अ०, प०, इ०, स० । ४ गुरणदरिद्रम् । ५ रक्षकः । ६ सत्सहायौ । सत्पक्षती च । ७ चक्रवत् । ८ चन्द्र इव । ६ समानम् । १० इहामुत्र च । ११ सोमवंशात् । १२ यतः कारणात् । १३ चक्रिरणः । १४ चक्री । १५ जयस्य । १६ यः ल० । १७ बलानियोगः । १८ भाविशौर्य इत्यर्थः ।
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