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महापुराणम् गुणागुणानभिज्ञेन कृता निन्दाऽथवा स्तुतिः। जात्यन्धस्येव धृष्टस्य रूपे हासाय केवलम् ॥२६॥ अयवा सोऽनभिज्ञेऽपि निन्दत स्तोतु वा कृतिम् । विदग्धपरिहासानाम् अन्यथा वास्तु विश्रमः ॥२७॥ गणयन्ति महान्तः किं क्षुद्रोपद्रवमल्पवत् । दाह्यं तृगाग्निना तूलं पत्युस्तापोऽपि नाम्भसाम् ॥२८॥ काष्ठजोऽपि दहत्यग्निः काष्ठं तं तत्तु' वर्द्धयेत् । प्रदीपायितमताभ्यां सदसद्भावभासने ॥२६॥ स्तुतिनिन्दे कृति श्रुत्वा कसेतु गुणदोषयोः। ते तस्य कुरुतः कीर्तिम् अकर्तुरपि सत्कृतेः ॥३०॥ सत्कवरर्जुनस्येव शराः शब्दास्तु योजिताः । कर्ण दुस्संस्कृतं प्राप्य तुदन्ति हृदयं भृशम् ॥३१॥ प्रवृत्तयं कृतिः कृत्वा गुरून पूर्वकवीश्वरान् । भाविनोद्यतनाश्चास्या' विवध्युः शुद्ध्यनुग्रहम् ॥३२॥ मतिमें केवलं सूते कृति राजीव तत्सुताम् । धियस्ता वर्तयिष्यन्ति धात्रीकल्पाः कवीशिनाम् ॥३३॥ इदं बुधा ग्रहीष्यन्ति मा गृहीबुः पृथग्जनाः । किमतौल्यानि रत्नानि 'क्रीणन्त्यकृतपुण्यकाः ॥३४॥
हृदि धर्ममहारत्नम् आगमाम्भोधिसम्भवम् । कौस्तुभादधिकं मत्वा दधातु पुरुषोत्तमः ॥३५॥ मैं तुझसे यह फिर भी प्रार्थना करता हूं कि तू मेरे गुणोंका ग्रहण मत कर । भावार्थ-दुर्जनोंके द्वारा दोष ग्रहण किये जाने पर रचना निर्दोष हो जावेगी और निर्दोष होनेसे सबको रुचिकर होगी परन्तु गुण ग्रहण किये जानेपर वह निर्गुण हो जानेसे किसीको रुचिकर नहीं होगी अतः यहाँ आचार्यने दुर्जन पुरुषसे कहा है कि तू मेरी इस रचनाके दोष ग्रहण कर क्योंकि वह तेरा धन है परन्तु गुणोंपर हाथ नहीं लगाना ॥२५॥ जिस प्रकार जन्मके अन्धे किसी धृष्ट पुरुषके द्वारा की हुई किसीके रूपकी स्तुति या निन्दा उसकी हँसीके लिये होती है उसी प्रकार गुण और दोषों के विषय में अजानकार पुरुषके द्वारा की हुई स्तुति या निन्दा केवल उसकी हँसीके लिये होती है ॥२६॥ अथवा वह अजानकार मनुष्य भी मेरी रचनाकी निन्दा या स्तुति करे क्योंकि ऐसा न करनेसे चतुर पुरुषोंको हास्यका स्थान कहाँ प्राप्त होगा। भावार्थ-जो मनुष्य उस विषयका जानकार न होकर भी किसीकी निन्दा या स्तुति करता है चतुर मनुष्य उसकी हँसी ही करते हैं ॥२७॥ महापुरुष क्या तच्छ मनष्योंके समान छोटे छोटे उपद्रवोंको गिना करते हैं ? अर्थात् नहीं। तृगकी आगसे रुई जल सकती है परन्तु उससे समुद्र के जलको संताप नहीं हो सकता ॥२८॥ काठसे उत्पन्न हुई अग्नि काठको जला देती है परन्तु काठ उसे बढ़ाता ही है, ये दोनों उदाहरण अच्छे और बुरे भावोंको प्रकट करने के विषयमें दीपकके समान आचरण करते हैं ॥२९॥ दुष्ट पुरुष मेरी रचनाको सुनकर गुणोंकी स्तुति और दोषोंकी निन्दा करें क्योंकि यद्यपि वे उत्तम रचना करना नहीं जानते तथापि मेरी रचनाकी स्तुति अथवा निन्दा ही उनकी कीर्तिको करनेवाली होगी ॥३०॥ उत्तम कविके वचन ठीक अर्जुनके बाणोंके समान होते हैं क्योंकि जिस प्रकार अर्जुनके बाण काममें लानेपर खोटे संस्कारवाले कर्ण (कर्ण नामका राजा) को पाकर उसके हृदयको दुःख पहुँचाते थे उसी प्रकार उत्तम कबिके वचन काम में लानेपर खोटे सँस्कारवाले कर्ण (श्रवण इन्द्रिय) को पाकर हृदयको अत्यन्त दुःख पहुँचाते हैं ॥३१॥ पहले के कवीश्वरोंको गुरु मानकर ही यह रचना की गई है इसलिये जो कवि आज विद्यमान हैं अथवा आगे होंगे वे सब इसे शुद्ध करनेकी कृपा करें ॥३२॥ जिस प्रकार रानी किसी उत्तम कन्याको केवल उत्पन्न करती है उसका पालन पोषण धाय करती है उसी प्रकार मेरी बुद्धि इस रचनाको केवल उत्पन्न कर रही है इसका पालन पोषण धायके समान कवीश्वरों की बुद्धि ही करेगी॥३३॥ मेरे इस काव्यको पण्डितजन ही ग्रहण करेंगे अन्य मूर्ख लोग भले ही ग्रहण न करें क्योंकि जिन्होंने पुण्य नहीं किया है ऐसे दरिद्र पुरुष क्या अमूल्य रत्नोंको खरीद सकते हैं ? अर्थात् नहीं ॥३४॥ पुरुषोत्तम (नारायण अथवा उत्तम मनुष्य) आगमरूपी
१ काष्ठम् । २ अग्निकाष्ठाभ्याम् । ३ स्तुतिनिन्दे । ४ कृतेः । ५ आददति । ६ कृष्ण इति ध्वनिः ।
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