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महापुराणम्
अभिगम्य नृपः क्षिप्रं स्वयमाविष्कृतोत्सवः। चेतःसौलोचनं वैतान प्रीतान् प्रावेशयत्पुरम् ॥२३०॥ स्वगहादिषु सम्प्रीत्या समुद्बद्धोत्सवध्वजः । प्राकम्पनिभिराविष्कृतावरैः परिवारितः ॥२३१॥ सांशु कर्ममिवोद्यन्तम् अर्ककीर्ति सहानुजम् । अकम्पननपोऽभत्य भरतं वाऽनयत्पुरम् ॥२३२॥ स्वादरेणव संसिद्धि भाविनीं तस्य सूचयन् । नाथवंशाग्रणीमघस्वरं चानेतुमभ्ययात् ॥२३३॥ ततो महीभृतः सर्वे त्रिसमद्रान्तरस्थिताः । पूरा इव पयोराशि प्रापुः 'स्फीतीकृतश्रियः ॥२३४॥ स्वयमर्थपथं गत्वा केषाञ्चित् सर्वसम्पदा । केषाञ्चिद् गमयित्वाऽन्यान् मान्यान् हेमाङगदादिकान् ॥२३॥ ये ये यथा यथा प्राप्ताः पुरीस्तां स्तांस्तथा तथा। आह्वयन्तीं पताकाभिर्वोच्छिताभिरवीविशत् ॥२३६॥ तदा तं राजगहस्थं नरविद्याधराधियः। वृत्तं सुलोचनाकार्षीत् पितरं जितचक्रिणम् ॥२३७॥ वाराणसी जितायोध्या स्वनाम्नस्तां निराकरोत् । कन्यारत्नात् परं नान्यद् इत्यत्राहुःप्रभृत्यतः।२३८॥ तान् स्वयंवरशालायाम् अर्ककीर्तिपुरस्सरान् । निवेश्य प्रीणयामास कृताभ्यागतसक्रियः ॥२३॥
अनेक उत्सवोंको प्रकट करनेवाले राजा अकंपनने स्वयं ही बहुत शीघ्र उन राजाओंकी अगवानी की और प्रसन्न हुए उन राजाओंको सुलोचनाके चित्तके समान वाराणसी नगरीमें प्रवेश कराया ॥२३०॥ जिसने बड़े प्रेमसे अपने घर आदिमें उत्सवकी ध्वजाएं बंधाई हैं और आदरको प्रकट करनेवाले हेमांगद आदि पुत्र जिसके साथ हैं ऐसे राजा अकम्पनने किरणों सहित उदय होते हुए सूर्य के समान अपने छोटे भाइयों सहित आये हुए अर्ककीर्तिकी अगवानी कर उसे महाराज भरतके समान नगरमें प्रवेश कराया ॥२३१-२३२॥ इसी प्रकार अपने आदरसे ही मानो उसकी आगे होनेवाली सिद्धिको सूचित करता हुआ नाथवंशका अग्रणी राजा अकंपन जयकुमार को लेने के लिये उसके सामने गया ॥२३३।। तदनन्तर जिस प्रकार पूर समुद्र की ओर जाता है उसी प्रकार तीनों (पूर्व, पश्चिम, दक्षिण) समुद्रोंके बीचके रहनेवाले सब राजा लोग अपनी अपनी शोभा बढ़ाते हुए बनारस आ पहुंचे ।।२३४॥ राजा अकंपन कितने ही राजाओंके सामने तो अपनी सब विभूतिके साथ स्वयं आधी दूरतक गया था और कितनों हीके सामने उसने मान्य हेमाङ्गद आदिको भेजा था ।।२३५॥ जो राजा जिस जिस प्रकारसे आ रहे थे उन्हें उसी उसी प्रकारसे उसने, अपनी फहराती हुई पताकाओंसे जो मानो बुला ही रही हों ऐसी बनारस नगरीमें प्रवेश कराया था ॥२३६।। उस समय सलोचनाने राजमहलमें विराजमान भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंसे घिरे हुए अपने पिताको चक्रवर्तीको भी जीतनेवाला बना दिया था। भावार्थ-महलमें इकट्ठे हुए अनेक राजाओंसे राजा अकंपन चक्रवर्तीके समान जान पड़ता था ।।२३७। उस समय अयोध्याको भी जीतनेवाली वाराणसी नगरी अपने नामसे ही उसका तिरस्कार कर रही थी। क्योंकि उस स्वयंवरके समय से ही लेकर इस संसारमें कन्यारत्नके सिवाय और कोई उत्तम रत्न नहीं है, यह बात प्रसिद्ध हुई है। भावार्थ-कदाचित् कोई कहे कि चक्रवर्तीकी राजधानी होनेसे चौदह रत्न अयोध्यामें ही रहते हैं इसलिये वही उत्कृष्ट नगरी हो सकती है न कि वाराणसी भी; तो इसका उत्तर यह है कि संसारमें सर्वोत्कृष्ट रत्न कन्यारत्न है जो कि उस समय वाराणसीमें ही रह रहा था अतः उत्कृष्ट रत्नका निवास होनेसे वाराणसीने अयोध्याका तिरस्कार कर दिया था ।।२३८।। अतिथियोंका सत्कार
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१ अभिमुखं गत्वा । २ अकम्पनः । ३ सुलोचनाचित्तमिव । ४ अकम्पनस्यापत्यः । ५ अभिमुखं गत्वा। ६ भरतमिव । ७ अकम्पनस्यादरेण । ८ वृद्धीकृत । ६ प्रावेशयत् । १० अयोध्याभिधानात् । ११ अयोध्योक्तिम् । अथवा योद्धमशक्या अयोध्या एतल्लक्षणं तदा तस्या अयोध्याया नास्तीति भावः । १२ उत्कृष्टम् ।
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