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त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व
३८३ कोतिबहिश्चरा लक्ष्मीरतिवृद्धा सरस्वती । जीर्णेतरापि शान्तेव' लक्ष्यते क्षतविद्विषः ॥३२०॥ ततस्त्वयि वयोरूपशीलादिगुणभाज्यलम् । प्रीतिलतेव दृकपुष्पा प्रवृद्धास्य फलिष्यति ॥३२१॥ यवाभ्यां निजितः कामः सम्प्रत्यभ्यन्तरीकृतः। स 'वामपजयायाभूदरिविश्रम्भितोऽप्यरिः॥३२२॥ निष्ठुरं जम्भतेऽमुष्मिन्नुभयारिरपि स्मरः । मत्वेव त्वां स्त्रियं भूयो भटेषु भटमत्सरः ॥३२३॥ विख्यातविजयः श्रीमान् यानमात्रेण निजितः । त्वयाऽयमत एवात्र जयो न्यायागतस्तव ॥३२४॥ प्राध्वंकृत्य गले रत्नमालया दशजितम् । जयलक्ष्मीस्तवैवास्तु तत्त्वमेनं करे कुरु ॥३२॥ इति तस्य वचः श्रुत्वा स्मरषाड्गुण्यवेदिनः। शनैविगलितव्रीडा लोललीलावलोकनः ॥३२६॥
तदा जन्मान्तरस्नेहश्चाक्षुषी० सुन्दराकृतिः। कुन्दभासार गुणास्तस्य श्रावणाः पुष्पसायकः ॥३२७॥ करती है इसलिये इसने सूर्य और चन्द्रमा दोनोंको शक्तिरहित कर दिया है ॥३१९॥ समस्त शत्रुओंको नष्ट करनेवाले इस जयकुमारकी कीति तो सदा बाहर रहती है लक्ष्मी अत्यन्त वृद्ध है, सरस्वती जीर्ण है और वीर लक्ष्मी शान्त सी दिखती है इसलिये दृष्टिरूपी पुष्पोंसे युक्त और खुब बढ़ी हुई इसकी प्रीतिरूपी लता वय, रूप, शील आदि गुणोंसे सहित तुझमें ही अच फलीभूत होगी। भावार्थ-३१६ वें श्लोकमें बतलाया था कि इसके चार प्रिय स्त्रियां हैं कीति, लक्ष्मी, सरस्वती और वीरलक्ष्मी परन्तु उनसे तुझे सपत्नीजन्य दुःखका अनुभव नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि कीति नामकी स्त्री तो सदा बाहर ही घूमती रहती है-अन्तःपुरमें उसका प्रवेश नहीं हो पाता (पक्षमें उसकी कीर्ति समस्त संसारमें फैली हुई है), लक्ष्मी अत्यन्त वृद्ध है-वृद्धावस्था युक्त है (पक्षमें बढ़ी हुई है), सरस्वती भी जीर्ण अर्थात् वृद्धावस्थाके कारण शिथिल शरीर हो रही है (पक्षमें परिपक्व हैं) इसलिये इन तीनोंपर उसका खास प्रेम नहीं रहता । अब रह जाती है वीरलक्ष्मी, यद्यपि वह तरुण है और सदा उसके पास रहती है परन्तु अत्यन्त शान्त है-शुङ्गार आदिकी ओर उसका आकर्षण नहीं है (पक्षमें क्षमायुक्त शूर वीरता है) इसलिये इन चारोंसे राजाकी प्रीति हटकर तुझपर ही आरूढ़ होगी क्योंकि त वय, रूप, शील आदि गुणोंसे सहित है ॥३२०-३२१॥ तुम दोनोंने पहले जिस कामदेवको जीतकर दूर हटाया था उसे अब अपने अन्तःकरणमें बैठा लिया है , अथवा खास विश्वासपात्र बना लिया है परन्तु अब वही कामदेव तुम दोनोंका पराजय करने के लिये तैयार हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुका कितना ही विश्वास क्यों न किया जाय वह अन्तमें शत्रु ही रहता है ॥३२२॥ यद्यपि यह कामदेव तुम दोनोंका शत्रु है तथापि तुझे स्त्री मानकर इसी एकपर बड़ी निष्ठुरताके साथ अपना प्रभाव बढा रहा है सो ठीक ही है क्योंकि योद्धाओंकी ईर्ष्या योद्धाओंपर ही होती है। भावार्थ-वह तुझे स्त्री समझ कायर मानकर अधिक दुःखी नहीं करता है परन्तु जयकुमार पर अपना पूरा प्रभाव डाल रहा है ॥३२३॥ जिसका विजय सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्रीमान् जयकुमारको तूने यान अर्थात् आगमन (पक्षमें युद्धके लिये किये हुए प्रस्थान) मात्रके द्वारा जीत लिया है इसलिये इस जगह न्यायसे तेरी ही विजय हुई है ॥३२४।। तू अपने दृष्टिरूपी वाणोंके द्वारा जीते हुए इस जयकुमारको रत्नोंकी मालासे गले में बांधकर अपने हाथमें कर, विजयलक्ष्मी तेरी ही हो ॥३२५॥ इस प्रकार कामदेवके सन्धि विग्रह आदि छह गुणोंको जाननेवाले कञ्चुकीके वचन सुनकर धीरे धीरे जिसकी लज्जा छूटती जा रही है, जिसकी लीलापूर्ण दृष्टि बड़ी चञ्चल है तथा उस समय जन्मान्तरका स्नेह नेत्रोंके द्वारा दे
१ वीरलक्ष्मीः । २ जयकुमारस्य। ३ वां युवयोः । वामवजमाया-ल० । ४ विश्वासितः । ५ जये। ६ गमनमात्रेण । ७ बन्धहेतुकमानुकूल्यं कृत्वा, ववेत्यर्थः । ८ तत् कारणात् । ६ लज्जा। १० चक्षुषा कृष्यमाणा। ११ कुन्दवद् भासमानाः । १२ श्रवणज्ञानविषयाः । श्रवणहिता वा।
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