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महापुराणम्
प्रदीपः स्वकुलस्यायं प्रभुः सोमप्रभात्मजः । श्रीमानुत्साहभेदैर्वा ' जयोऽयमनुजैवं तः ॥ ३१०॥ न रूपमस्य व्यावण्यं तदेतदति मन्मथम् । स दर्पणोऽर्पणीयः किं करककणदर्शने ॥ ३११॥ जित्वा मेघकुमाराख्यान, उत्तर भरते सुरान् । सिंहनादः कृतोऽनेन जिततन्मेघनिस्स्वनः " ॥ ३१२ ॥ वीरपट्टे 'प्रवध्यास्य स्वभुजाभ्यां समुद्धतम् । न्यधायि निधिनाथेन हृष्ट्वा मेघस्वराभिधा ॥ ३१३॥ श्रात्मसम्यग्गुणैर्युक्तः समेतश्चाभिगामिकैः । प्रज्ञोत्साहविशेषैश्च ततोऽयमुदितोदितः ॥ ३१४॥ चित्र जगत्त्रयस्यास्य गुणाः संरज्य' साम्प्रतम् । व्यावृताः सर्वभावेन तव भावानुरञ्जनं ॥३१५॥ श्रयमेकोऽस्ति दोषोऽस्य चतस्रः सन्ति योषितः । श्रीः कीर्तिर्वीरलक्ष्मीश्च वाग्देवी चातिवल्लभाः ॥ ३१६॥ जितमेघकुमारोऽयम् एकः प्राक् त्वज्जयेऽणुना । च्युतधैर्य इवालक्ष्ये" "यत्सहायीकृतः स्मरः ॥ ३१७॥ बलिनोर्युवयोर्मध्ये वर्तमानो जिगीषतोः " । द्वैधीभावं समापन्नः षाड्गुण्यनिपुणः स्मरः ॥ ३१८ ॥ कीर्तिः कुवलयाह्लादी पद्माह्लादीप्रभाऽस्य हि । सूर्याचन्द्रमसौ तस्मादनेन हतशक्तिकौ ॥३१६ ॥
चित्तकी बातको जाननेवाला कंचुकी घोड़ोंकी रास पकड़कर जयकुमारका वर्णन करनेके लिये अपने वचनोंको व्यापृत करने लगा अर्थात् जयकुमारके गुणोंका वर्णन करने लगा ||३०९ ॥ उसने कहा कि यह श्रीमान् स्वामी जयकुमार है, यह अपने कुलका दीपक है, महाराज सोमप्रभ पुत्र है और उत्साहके भेदोंके समान अपने छोटे भाइयोंसे आवृत है - घिरा हुआ है ।। ३१० ॥ कामदेवको तिरस्कृत करनेवाला इसका यह रूप तो वर्णन करने योग्य ही नहीं है क्योंकि हाथ का कंकण देखनेके लिये क्या दर्पण दिया जाता है ? ।। ३११ ।। इसने उत्तर भरतक्षेत्रमें मेघकुमार नामके देवोंको जीतकर उन देवोंके कृत्रिम बादलोंकी गर्जनाको जीतनेवाला सिंहनाद किया था ॥३१२॥ ं उस समय निधियोंके स्वामी महाराज भरतने हर्षित होकर अपनी भुजाओं द्वारा धारण किया जानेवाला वीरपट्ट इसे बांधा था और मेघस्वर इसका नाम रक्खा था ॥३१३|| यह आत्माके समीचीन गुणोंसे युक्त है तथा आदरणीय उत्तम पुरुषोंके साथ सदा संगति रखता है इसलिये बुद्धि और विशेष विशेष उत्साहों के द्वारा यह श्रेष्ठोंमें भी श्रेष्ठ गिना जाता है ||३१४|| यह भी आश्चर्यकी बात है कि इसके गुण तीनों लोकोंको प्रसन्नकर अब तेरे अन्तःकरणको अनुरक्त करनेके लिये पूर्ण रूपसे लौटे हैं । भावार्थ - इसने अपने गुणोंसे तीनों लोकोंके जीवोंको प्रसन्न किया है और अब तुझे भी प्रसन्न करना चाहतें हैं ॥३१५॥ यदि इसमें दोष है तो यही एक, कि इसके निम्नलिखित चार स्त्रियां हैं, श्री, कीर्ति, वीरलक्ष्मी और सरस्वती । ये चारों ही स्त्रियां इसे अत्यन्त प्रिय हैं ॥ ३१६ || जिसने पहले अकेले ही मेघकुमारको जीत लिया था ऐसा यह जयकुमार इस समय तुझे जीतनेके लिये धैर्यरहित सा हो रहा है अर्थात् ऐसा जान पड़ता है मानो इसका धैर्य छूट रहा हो यही कारण है अब इसने कामदेवको अपना सहायक बनाया है ।। ३१७|| एक दूसरेको जीतनेकी इच्छा करनेवाले तुम दोनों बलवानों के बीच में पड़ा हुआ यह संधि विग्रह आदि छहों गुणों में निपुण कामदेव द्वैधीभावको प्राप्त हो रहा है अर्थात् कभी उसका आश्रय लेता है और कभी तेरा ||३१८ | इसकी कीर्ति तो कुवलय अर्थात् रात्रिमें खिलनेवाले कमलोंको ( पक्ष में मही मण्डलको ) आनन्दित करती है और प्रभा पद्म अर्थात् दिनमें खिलनेवाले कमलोंको ( पक्षमें पद्मा - लक्ष्मीको ) विकसित १ शक्तिविशेषैः । २ दृश्यमानम् । ३ अतिक्रान्तमन्मथम् । ४ प्रसिद्धः । ५ निर्जितमेघकुमारघनध्वनिः । ६ प्रयुध्वास्य ल० । ७ अभिगमार्हः । आदरणीयैरित्यर्थः । ८ ततः कारणात् । ६ आत्मन्यनुरक्तं विधाय । १० अधुना । ११ व्यापारमकुर्वन् । १२ सकलस्वरूपेण । १३ चित्तानुरञ्जने । 'भावः सत्ता स्वभावाभिप्रायभावचेष्टात्मजन्मसु' इत्यभिधानात् । १४ दर्शनीयः । १५ यत् कारणात् । १६ परस्परं जेतुमिच्छतोः । १७ उभयावलम्बनत्वम् ।
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