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महापुराणम् इत्येभिः स्यन्दनादेषा समरिक्षप्यावरोपिता । रत्नमालां समादाय कन्या कञ्चकिनः करात् ॥३२८।। अबध्नाद् बन्धुरां तस्य कण्ठेऽतिप्रेमनिर्भरा । सा वाचकात समध्यास्य वक्षोलक्ष्मीरिवापरा ॥३२६॥ सहसा सर्वतूर्याणाम् उदतिष्ठन्महाध्वनिः। श्रावयन्निव दिक्कन्याः कन्यासामान्यमुत्सवम् ॥३३०॥ वक्त्रवारिजवासिन्या नरविद्याधरेशिनाम् । श्रिया जयमुखाम्भोजम् प्राश्रितं वा तदात्यभात् ॥३३१॥ गताशा'बारयो म्लानमुखाब्जाक्ष्युत्पलश्रियः । खभूचरनृपाः कष्टमासन् शुष्कसरस्समाः ॥३३२॥
अभिमतफलसिद्धचा वर्द्धमानप्रमोदो निजदुहि तृसमेतं प्राक् पुरोधार्य पूज्यम् । जयममरतरं वा कल्पवल्लीसनाथ नगरमविशदुच्च थवंशाधिनाथः ॥३३३॥ आद्योऽयं महिते स्वयंवरविधौ ‘योग्यसौभाग्यभाग
यस्माद्राजखगेन्द्रवक्त्रवनजश्रीवारयोषिद्वतः। मालाम्लानगुणा यतोऽस्य शरणे मन्दारमालायते
"तत्कल्पावधिवी धमस्यः विपुलं विश्वर" यशो व्यश्नुते ॥३३४॥ भास्वत्प्रभाप्रसरणप्रतिबुद्धपद्मः प्राप्तोदयः प्रतिविधाय० परप्रभावम्।
२२बन्धुप्रजाकुमुदबन्धुरचिन्त्यकान्ति ति स्म भानुशशिनोविजयी जयोऽयम् ॥३३५॥ हुई जयकुमारकी सुन्दर आकृति, कुन्दके फूलके समान सुने हुए उसके गुण और कामदेव इन सबने उठाकर जिसे रथसे नीचे उतारा है ऐसी कन्या सुलोचनाने कंचुकीके हाथसे रत्नमाला लेकर तथा अतिशय प्रेममें निमग्न होकर, वह मनोहरमाला उस जयकुमारके गले में डाल दी। उस समय वह माला जयकुमारके वक्षःस्थलपर अधिरूढ़ हो दूसरी लक्ष्मीके समान सुशोभित हो रही थी ॥३२६-३२९।। उस समय अकस्मात् सब बाजोंकी बड़ी भारी आवाज ऐसी उठी थी मानो दिशारूपी कन्याओंके लिये सुलोचनाका असाधारण उत्सव ही सुना रही हो ॥३३०॥ उस समय जयकुमारका मखरूपी कमल बहत ही अधिक सशोभित हो रहा था
और ऐसा जान पड़ता था मानो भूभिगोचरी तथा विद्याधर राजाओंके मुखरूपी कमलोंपर निवास करनेवाली लक्ष्मी उसी एकके मुखपर आ गई हो ॥३३१॥ जिनका आशारूपी जल नष्ट हो गया है और जिनके मुखरूपी कमल तथा नेत्ररूपी उत्पलोंकी शोभा म्लान हो गई है ऐसे भूमिगोचरी और विद्याधर राजा सूखे सरोवरके समान बड़े ही दुःखी हो रहे थे ॥३३२॥ अभीष्ट फलकी सिद्धि होनेसे जिसका आनन्द बढ़ रहा है ऐसा उत्कृष्ट नाथवंशका अधिपति राजा अकंपन, कल्पलतासे सहित कल्पवृक्षके समान पुत्रीसे युक्त पूज्य जयकुमारको आगेकर अपने उत्कृष्ट नगरमं प्रविष्ट हुआ ॥३३३॥ चूंकि भाग्य और सौभाग्यको प्राप्त होनेवाला यह जयकुमार स्वयंवरकी सम्माननीय विधिमें सबसे पहला था, भमिगोचरी और विद्याधर राजाओंके मुखकमलोंकी शोभारूपी वाराङ्गनाओंसे घिरा हुआ था और अम्लान गुणोंवाली माला उसकी शरण में आकर कल्पवृक्षोंकी मालाके समान आचरण करने लगी थी, अतएव उसका बहुत बड़ा निर्मल यश कल्पान्तकाल तक समस्त संसारमें व्याप्त रहेगा ॥३३४।। जिसकी देदीप्यमान प्रभाके प्रसारसे कमल खिल उठते थे, दूसरों (शत्रुओं अथवा नक्षत्र आदिकों) के प्रभावका तिरस्कार कर जिसका उदय हुआ था और जो भाईबन्धु तथा प्रजारूपी कुमुदोंको
१ समुद्धत्य। २ मुखकमलनिवासिन्या। ३ गतास्यवारण: ट०। विगतमुखरसाः । ४ पुत्री । ५ अग्ने कृत्वा। ६ इव । ७ सहितम् । ८ आद्येऽयं इ०, ५०, अ०, स०। ६ यत् कारणात् । भाग्य पुण्य । १० यस्मात् कारणात् । ११ यस्मात् कारणात् । १२ जयस्य । १३ परित्राणे, गृहे । १४ तस्मात् कारणात् । १५ कल्पपर्यन्तम् । १६ निर्मलम् । १७ जगत् । १८ व्याप्नोति । १६ प्रबुद्धलक्ष्मीः । विकसितकमलः । २० निराकृत्य। २१ शत्रसामर्थ्यम्। नक्षत्रादिसमध्यर्थं च । २२ बन्धवश्च प्रजाश्च बन्धुप्रजाः, बन्धुप्रजा एव कुमुदानि तेषां बन्धुश्चन्द्रः ।
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