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त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व
पुरोपजित सद्धर्मात् सर्वमेतत्ततः पुरा । धर्म एव समभ्यर्च्य इति सञ्चित्य विद्वरः ॥ २४० ॥ कृत्वा जैनेश्वरीं पूजां दीनानाथवनीपकान् । अनथिनः समर्थ्याशु सर्वत्यागोत्सवोद्यतः ॥२४१॥ तां लक्ष्मीमक्षयां मत्वा सफलां चाप्तसद्व्ययाम् । स तदाभूत् क्षतेरेकभोग्यः क्षितिरिवात्मनः ॥ २४२ ॥ एवं विहिततत्पूजः प्रकृतार्थं प्रचक्रमे । प्रारम्भाः सिद्धिमायान्ति पूज्यपूजा' पुरस्सराः ॥ २४३॥ श्रास्फालिता तदा भेरी विवाहोत्सवशंसिनी । व्याप्नोत् प्रमोदः प्राक् चेतः पश्चात् कर्णेषु तद्ध्वनिः । । पुष्पोपहारभूभागानुत्यत्केतुनभस्तला । निर्जिताब्धिमहात्सूर्यध्वानाध्मातदिगन्तरा ॥ २४५॥ विशोधित महावीथिदेशा प्रोद्बद्धतोरणा । पुनर्नवसुधाक्षोदधवलीकृत सौधिका १२ ॥२४६॥ रञ्जिताञ्जनक्षेत्रा मालाभारिशिरोरुहा । संस्कृतभ्भ्रूलतोपेता सविशेषललाटिका ॥२४७॥ "मणिकुण्डलभारेण प्रलम्बश्रवणोज्ज्वला । सचित्रकरविन्यस्त" पत्रचित्रकपोलिका ॥ २४८ ॥ ताम्बूलरससंसर्गाद् द्विगुणारुणिताधरा । मुक्ताभरणभाभारभासिबन्धुरकण्ठिका ॥ २४६॥ सचन्दनरसस्फारहारवक्षः कुचाञ्चिता" । महामणिमयूखा ''तिभास्वद्भुजलतातता ॥२५०॥ करनेवाले राजा अकम्पनने उन अर्ककीर्ति आदि राजाओंको स्वयंवरशालामें ठहराकर प्रसन्न किया था ॥ २३९ ॥ | यह सब पहले उपार्जन किये हुए समीचीन धर्मसे ही होता है इसलिये सबसे पहले धर्म ही पूजा करने के योग्य है ऐसा विचारकर विद्वानों में श्रेष्ठ राजा अकंपन श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजाकर तथा दीन, अनाथ और याचकोंको अयाचक बनाकर सबका त्याग करनेरूप उत्सवके लिये शीघ्र ही तयार हो गया । वह अच्छे कामों में खर्च की हुई लक्ष्मीको क्षयरहित और सफल मानने लगा तथा जिस प्रकार उसकी पृथिवी उसके उपभोग करनेके योग्य थी उसी प्रकार उस समय वह समस्त पृथिवीके उपभोग करने योग्य हो गया था । भावार्थपृथिवीके सब लोग उसके राज्यका उपभोग करने लगे थे || २४० - २४२ ।। इस प्रकार उसने जिनेन्द्रदेवकी पूजाकर अपना प्रकृत कार्य प्रारम्भ किया सो ठीक ही है क्योंकि पूज्य पुरुषोंकी पूजा पूर्वक किये हुए कार्य अवश्य ही सफलताको प्राप्त होते हैं ॥ २४३ ॥ उसी समय विवाहके उत्सवको सूचित करनेवाली भेरी बज उठी सो पहले सबके चित्तमें आनन्द छा गया और पीछे भेरीकी आवाज कानों में व्याप्त हुई ॥ २४४ ॥ । उस समय वहां पृथिवीपर जहां तहां फूलों के उपहार पड़े हुए थे, आकाशमें पताकाएं नृत्य कर रही थीं, समुद्रकी गर्जनाको जीतनेवाले बड़े बड़े नगाड़ोंसे दिशाएं शब्दायमान हो रही थीं, वहांकी बड़ी बड़ी गलियां शुद्ध की गई थीं उनमें तोरण बांधे गये थे और बड़े बड़े महल नये चूनाके चूर्ण से पुनः सफेद किये गये थे || २४५२४६॥ वहांकी स्त्रियोंके उत्तम नेत्र कज्जलसे रंगे हुए थे, शिरके केश मालाओंको धारण कर रहे थे, भौंहरूपी लताएं संस्कार की हुई थीं, उनके ललाटपर सुन्दर तिलक लगा हुआ था, उज्ज्वल कर्ण मणियों के बने हुए कुण्डलों के भारसे कुछ कुछ नीचे की ओर झुक रहे थे, कपोलोंपर हाथसे बनाई हुई पत्ररचनाके चित्र बने हुए थे, पानके रसके संबन्धसे उनके ओठोंकी लाली दूनी हो गई थी, उनके कण्ठ मोतियोंके आभूषणोंकी कान्तिके भारसे बहुत ही सुशोभित हो रहे थे, उनका वक्षःस्थल चन्दनका लेप, बड़ा हार और स्तनोंसे शोभायमान हो रहा था, उनकी भुजारूपी लताएं बड़े बड़े मणियोंकी किरणोंसे देदीप्यमान हो रही थीं, उनका विशाल नितम्बस्थल
६ प्रकाश्य । ११ प्रसरति
१ ततः कारणात् । २ पूर्वम् । ३ विदां वरः । ४ याचकान् । ५ अनिच्छन् । ७ सर्वजनस्य । ८ कृतजिनपूजः । ६ प्रकृतकार्यम् । १० पूज्यानां पूजा पुरस्सरा येषु ते । स्म । १२ नूतनसुधालेपधवलीकृतहर्म्या | १३ तिलकसहितभालस्थला । १४ रत्नकर्णवेष्टन । १५ प्रशस्तचित्रिकाजनचित्रितमकरिकापत्रादिविविध रचनावद्गण्डमण्डल । १६ मनोज्ञग्रीवा । १७ प्रशस्तश्रीखण्डकर्दमकलितवक्षसास्फुररणहारान्वितकुचाभ्यां च पूजिता । १८ मयूखाभा 'त०' पुस्तकं विहाय सर्वत्र ।
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