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महापुराणम् संस्कृतान हितेप्रीतिःप्राकृताना प्रिय प्रियम् । एतद्धितं प्रियं चातः सर्वान सन्तोषयत्यलम् ॥४५॥ इवं निष्पन्नमेवात्र स्थितमेवायुगान्तरम । इत्याविर्भावितोत्साहः प्रस्तुवें प्रस्तुतां कथाम् ॥४६॥
इति पीठिका। अथातः श्रणिकः पीत्वा पुरोः सुचरितामृतम् । प्रासिस्वादयिषुः शेषं हस्तलग्नमिवोत्सुकः ॥४७॥ समुत्थाय सभामध्ये प्राञ्जलिः प्रणतो मना । पुनर्विज्ञापयामास गौतम गणनायकम् ॥४८॥ त्वत्प्रसादाच्छ तं सम्यकपुराणं परम पुरोः। निवृत्तोऽसौ यथास्यान्ते तथाहं चातिनिर्वृतः ॥४६॥ (किल तस्मिन् जयो नाम तीर्थंभूत् पार्थिवाग्रणीः । यस्याद्यापि जितार्कस्य प्रतापः प्रथते क्षितौ ॥५०॥ यस्य दिग्विजय मेघकुमारविजय स्वयम् । वीर पट्टे समुद्धृत्य बबन्ध भरतेश्वरः ॥५१॥ पुरस्तीर्थकृतां पूर्वश्चक्रिणां भरतेश्वरः । दानतीर्थकृतां श्रेयान् किलासौ" च स्वयंवर ॥५२॥ अर्ककीर्ति पुरोः पौत्रं१५ सङगरे कृतसङगरः । जित्वा निगलयामास किलकाकी सहेलया ॥५३॥ सेनान्तो वृषभः कुम्भो रथान्तो दृढसंज्ञकः । धनुरन्तः शतो देवशर्मा भावान्तदेवभाक् ॥५४॥ नन्दनः सोमदत्ताह्वः सूरदत्तो गुणैर्गुरुः । वायुशर्मा यशोबाहुर्देवाग्निश्चाग्निदेववाक् ॥५५॥
अग्निगुप्तोऽथ मित्राग्निहलभूत समहाधरः। महेन्द्री वसुदेवश्च ततः पश्चाद्वसुन्धरः ॥५६॥ करनेवाली है, आनेवाले पापोंको रोकनेवाली है और पुण्योंको बुलानेवाली है इसलिये इसका सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥४४॥ उत्तम मनुष्योंकी हितमें प्रीति होती है और साधारण मनुष्योंको जो इष्ट है वही प्रिय होता है, यह पुराण हितरूप भी है और प्रिय भी है अतः सभीको अच्छी तरह सन्तुष्ट करता है ॥४५॥ यह तैयार हुआ पुराण अवश्य ही इस संसारमे युगान्तर तक स्थिर रहेगा इस प्रकार जिसे उत्साह प्रकट हुआ है ऐसा मैं अब प्रकृत कथाका प्रारम्भ करता हूँ ॥४६।। (इस प्रकार पीठिका समाप्त हुई ।)
अथानन्तर-राजा श्रेणिक भगवान् वृषभदेवके उत्तम चरितरूपी अमृतको पीकर हाथमें लगे हुए की तरह उसके शेष भागको भी आस्वादन करनेकी इच्छा करता हुआ अत्यन्त
उत्कंठित हो उठा ।।४७।। उसने सभाके बीच में खड़े होकर हाथ जोड़े, कुछ शिर झुकाकर 'नमस्कार किया और फिर गौतम गणधरसे इस प्रकार प्रार्थना की कि हे भगवन्, मैंने आपके प्रसादसे श्री वृषभदेवका यह उत्कृष्ट पुराण अच्छी तरह श्रवण किया है। जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव इस पुराणके अन्तमें निर्वाणको प्राप्त होकर सुखी हुए हैं उसी प्रकार में भी इसे सुनकर अत्यन्त सुखी हुआ हूँ। ऐसा सुना जाता है कि भगवान् वृषभदेवके तीर्थमें सब राजाओंमें श्रेष्ठ जयकुमार नामका वह राजा हआ था, जिसने अर्ककीतिको भी जीता था और जिसका प्रताप आज भी पृथिवीपर प्रसिद्ध है । दिग्विजयके समय मेघकुमारको जीत लेनेपर जिसके लिये स्वयं महाराज भरतने वीरपट्ट निकालकर बाँधा था, जिस प्रकार तीर्थंकरोंमें वृषभदेव, चक्रवतियों में सम्राट् भरत और दान तीर्थकी प्रवृत्ति करनेवालोंमें राजा श्रेयांस सर्वप्रथम हुए हैं उसी प्रकार जो स्वयंवरकी विधि चलाने में सर्वप्रथम हुआ है, जिसने युद्ध में प्रतिज्ञा कर श्री वृषभदेवके पोते अर्ककीर्तिको अकेले ही लीलामात्रमें जीतकर बाँध लिया था तथा वृषभसेन १, कुम्भ २, दृढरथ ३, शतधनु ४, देवशर्मा ५, देवभाव ६, नन्दन ७, सोमदत्त ८, गुणोंसे श्रेष्ठ सूरदत्त ९, वायुशर्मा १०, यशोबाहु ११, देवाग्नि १२, अग्निदेव १३, अग्निगुप्त १४, मित्राग्नि १५, हलभृत् १६,
१ उत्तमपुरुषाणाम् । २ परिणमनसुखावधे। ३ साधारणानाम् । ४ आपातरमणीयम् । अनुभवनकाले सुन्दरमित्यर्थः । ५ इष्टम् । ६ पुराणम् । ७ प्रारम्भे । ८ वृषभस्य । ६ आस्वादयितुमिच्छुः । १० हस्तालग्न-अ०, प०, ल०, म०। ११ ईषत् । १२ अतिसुखी। १३ जयस्य । १४ जयकुमारः । १५ नप्तारम् । १६ कृतप्रतिज्ञः। १७ बबन्ध ।
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