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महापुराणम् गणी तेनति सम्पष्टःप्रवृत्तस्तदनुग्रहे। नाथिनो विमुखान् सन्तः कुर्वन्ते तद्धि तद्वतम् ॥७२॥ शण श्रेणिक संप्रश्नस्त्वयात्रावसरे कृतः । नाराधयन्ति' कान्वाते सन्तोऽवसरवेदिनः ॥७३॥ कथोमुखम् इह जम्बुमति द्वीपे दक्षिण भरते महान । वर्णाश्रमसमाकीर्णो देशोऽस्ति कुरुजाङगलः ॥७४॥ धर्मार्थकाममोक्षाणाम एको लोकेऽयमाकरः । भाति स्वर्ग इव स्वर्गे विमानं वाऽमरेशितुः ॥७॥ हास्तिनाख्यं पुरं तत्र विचित्रं सर्वसम्पदा । सम्भवं मुषयद्वाद्धौं लक्ष्म्याः कुलगृहायितम् ॥७६॥ पतिः पतिर्वा ताराणाम् अस्य सोमप्रभोऽभवत् । कुर्वन् कुवलयाह्लादं सत्करैः स्वर्बुधाश्रयः ॥७७॥ तस्य लक्ष्मीमनाक्षिप्य' वक्षःस्थलनिवासिनी । लक्ष्मीरियं द्वितीयेति प्रेक्ष्या० लक्ष्मीवती सती ॥७॥ तयोर्जयोऽभवत् सूनुः.प्रज्ञाविक्रमयोरिव । तन्वन्नाजन्मनः१२ कोति लक्ष्मोमिव गुणाजिताम् ॥७९॥) सुताश्चतुर्दशास्यान्य जज्ञिरे विजयादयः । गुणैर्मनन् व्यतिक्रान्ताः संख्यया सदशोऽपि ते ॥८॥
प्रवृद्धनिजचेतोभिस्तैः पञ्चदशभिर्भृशम् । कान्तः कलाविशेषा' राजराजो रराज सः॥१॥ तू ही हमारा मन है और तू ही मेरी जीभ है' इस प्रकार समस्त सभाने उसकी प्रशंसा की थी ॥७१॥ राजा श्रेणिकक द्वारा इस प्रकार पूछे गयं गौतम गणधर उसका अनुग्रह करनेके लियं तत्पर हए सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पूरुष याचकोंको विमख नहीं करते, निश्चयसे यही उनका व्रत है ॥७२॥ गौतम स्वामी कहने लगे कि हे श्रेणिक ! सुन, तूने यह प्रश्न अच्छे अवसरपर किया है अथवा यह ठीक है कि अवसरको जाननेवाले सत्पुरुष अन्त में किसको वश नहीं कर लेते ॥७३॥
इस जम्बू द्वीपके दक्षिण भरतक्षेत्रमें वर्ण और आश्रमोंसे भरा हुआ कुरुजांगल नामका बड़ा भारी देश है ॥७४।। संसारमें यह देश धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की एक खान है। तथा यह देश स्वर्गके समान है अथवा स्वर्गमें भी इन्द्र के विमानके समान है ॥७५॥ उस देशमें हस्तिनापुर नामका एक नगर है जो कि सब प्रकारकी सम्पदाओंसे बड़ा ही विचित्र है तथा जो समुद्र में लक्ष्मीकी उत्पत्तिको झूठा सिद्ध करता हुआ उसके कुलगृहके समान जान पड़ता है ।।७६॥ उस नगरका राजा सोमप्रभ था जो कि ठीक चन्द्रमाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा अपने उत्तम कर अर्थात् किरणोंसे कुवलय अर्थात् कुमुदोको आनन्दित-विकसित करता हुआ बुध अर्थात् बुध ग्रहके आश्रित रहता है उसी प्रकार वह राजा भी अपने उत्तम कर अर्थात् टैक्ससे कुवलय अर्थात् महीमण्डलको आनन्दित करता हआ बध अर्थात् विद्वानोंके आश्रयमें रहता था ॥७७॥ उस राजाकी लक्ष्मीवती नामकी अत्यन्त सुन्दरी पतिव्रता स्त्री थी जो कि ऐसी जान पड़ती थी मानो उसकी लक्ष्मीका तिरस्कार न कर वक्षः-स्थलपर निवास करनेवाली दूसरी ही लक्ष्मी हो ॥७८॥ जिस प्रकार बुद्धि और पराक्रम से जय अर्थात् विजय उत्पन्न होती है उसी प्रकार उन लक्ष्मीमती और सोमप्रभके जय अर्थात् जयकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ जो कि जन्मसे ही गुणों द्वारा उपार्जन की हुई लक्ष्मी और कीर्तिको विस्तृत कर रहा था ॥७९॥ राजा सोमप्रभके विजयको आदि लेकर और भी चौदह पुत्र उत्पन्न हुए थे जो कि संख्यामें समान होनेपर भी गुणोंके द्वारा कुलकरोंको उल्लंघन कर रहे थे ।।८०।। जिस प्रकार अतिशय सुन्दर विशेष कलाओंसे चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी
१ स्वाधीनान् कुर्वन्ति । २ कान्वैते अ०, स० । कान्वान्ते ल०, म० । ३ इव । ४ उत्पत्तिम् । ५ अनृतं कुर्वत् । ६ अयं लक्ष्मीशब्दः सम्भवं कुलगृहायितमित्युभत्रापि योजनीयः । ७ कुवलयानन्दं करवानन्दं च । ८ विद्वज्जनाश्रयः । सोमसुताश्रयश्च । ६ तिरस्कारमकृत्वा । १० दर्शनीया। ११ पतिव्रता। १२ जननकालात् प्रारभ्य। -जन्मतः ल०,म० । १३ मनुभिः समाना अपि । १४ वा राजा राजा इत्यपि पाठः । चन्द्र इव ।
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