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त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व
३६३ वाराणसी पुरी तत्र जित्वा तामामरों पुरीम्। 'अमानस्तद्विमानानि स्वसौधरिव साहसीत् ॥१२४॥ प्राक समच्चितदुष्कर्मा न 'तत्रोत्पत्तुमर्हति । प्रमादादपि तज्जोऽपि स्यात् किं पापी मनस्यपि ॥१२॥ एवं भवत्रयश्रेयःसूचनी धर्मवम॑नि । विनेयान् जिनविद्येव साऽन्यस्थान प्यवीवृतत् ॥१२६॥ नाम्नव कम्पितारातिस्तस्याः पतिरकम्पनः । विनीत इव विद्यायाः स्वाभिप्रेतार्थसम्पदः ॥१२७॥ पुरोपाजितपुण्यस्य वर्द्धने रक्षण श्रियः। न नीतिः किन्न कामे च धर्म चास्योपयोगिनी ॥१२॥ न हर्ता केवलं दाता न हन्ता पाति केवलम् । सर्वास्त त्पालयामास स१३ धर्मविजयी प्रजाः ॥१२॥ पारमात्म्य पदे पूज्यो भरतेन यथा पुरुः । गृहाश्रमे तथा सोऽपि सा तस्य कुलवृद्धता ॥१३०॥ तस्यासीत्सुप्रभादेवी शीतांशोर्वा प्रभा तया । मुमुदे कुमुदाबोधं विदधत् स कलाश्रयः ॥१३१॥ न लक्ष्मीरपि तत्प्रीत्य सती सा सुप्रजा" यथा । सत्फला इव सद्वल्ल्यः पुत्रवत्यस्त्रियः प्रियाः ॥१३२॥
निःसन्देह स्वर्ग और मोक्षको जीतनेवाला था ॥१२३॥ उस काशीदेशमें एक वाराणसी (बनारस) नामकी नगरी थी जो कि अपने अपरिमित राजभवनोंसे अमरपुरीको जीतकर उसके विमानोंकी हँसी करती हुई सी जान पड़ती थी॥१२४।। जिसने पूर्वजन्ममें पापकर्मोंका संचय किया है ऐसा जीव उस वाराणसी नगरीमें उत्पन्न होने योग्य नहीं था। तथा उसमें उत्पन्न हुआ जीव प्रमादसे भी क्या कभी मनमें भी पापी हो सकता था ? अर्थात् नहीं ॥१२५॥
इस तरह भूत, भविष्यत् और वर्तमान सम्बन्धी तीनों भवोंके कल्याणको सूचित करनेवाली वह नगरी जिनवाणीके समान दूसरी जगह रहनेवाले शिष्य लोगोंको भी धर्ममार्गमें प्रवृत्त कराती थी ॥१२६॥ जिस प्रकार विनयी मनुष्य विद्याका स्वामी होता है उसी प्रकार अपने नामसे ही शत्रुओंको कम्पित कर देनेवाला राजा अकम्पन उस नगरीका स्वामी था। जिस प्रकार विद्या अपने अभिलषित पदार्थोंकी देनेवाली होती है उसी प्रकार वह नगरी भी अभिलषित पदार्थोंको देनेवाली थी ॥१२७॥ पूर्व जन्ममें पुण्य उपार्जन करनेवाले उस राजाकी नीति केवल लक्ष्मीके बढ़ाने और उसकी रक्षा करने में ही काम नहीं आती थी किन्तु धर्म और कामके विषयमें भी उसका उपयोग होता था ॥१२८। वह राजा केवल प्रजासे कर वसूल ही नहीं करता था किन्तु उसे कुछ देता भी था और केवल दण्ड ही नहीं देता था किन्तु रक्षा भी करता था इस प्रकार धर्म द्वारा विजय प्राप्त करनेवाला वह राजा समस्त प्रजाका पालन करता था ॥१२९॥ राजा अकम्पनके कुलका बड़प्पन यही था कि भरतमहाराज परमात्मपदमें जिस प्रकार भगवान् वृषभदेवको पूज्य मानते थे उसी प्रकार गृहस्थाश्रममें उसे पूज्य मानते थे ॥१३०॥ उसके सुप्रभा नामकी देवी थी जोकि चन्द्रमाकी प्रभाके समान थी। जिस प्रकार चन्द्रमा अनेक कलाओंका आश्रय हो अपनी प्रभासे कूमदाबोध अर्थात कूमदिनियों का विकास करता हुआ प्रसन्न (निर्मल) रहता है उसी प्रकार वह राजा भी अनेक कलाओंविद्याओंका आश्रय हो अपनी सुप्रभा देवीसे कुमुदाबोध अर्थात् पृथिवीके समस्त जीवोंके आनन्द का विकास करता हआ प्रसन्न रहता था ॥१३॥ उत्तम संतान उत्पन्न करनेवाली वह पतिव्रता सुप्रभादेवी जिस प्रकार राजाको आनन्दित करती थी उस प्रकार लक्ष्मी भी उसे आनन्दित नहीं कर सकी थी सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार अच्छे फल देनेवाली उत्तम लताएँ प्रिय
१ प्रमाणातीतः । २ पुरी। ३ हसति स्म। ४ नगर्याम् । ५ दिव्यभाषेव। ६ नगरी । ७ देशान्तरस्थान् । ८ वर्तयति स्म। ६ विनेयपरः । १० निजाभीष्टार्थसम्पद् यस्यां सा तस्याः। ११ नयनं करणम् । १२ तत् कारणात् । १३ अकम्पनः । १४ शोभनाः प्रजा अपत्यानि यस्या सा सुप्रजाः । सत्पुत्रवतीत्यर्थः ।
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