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त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व
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प्रतिवृद्धः क्षयासन्नः स्पष्टलक्ष्माहिगोचरः । पूर्णःशेषोऽप्यसम्पूर्णोन तद्वक्त्रोपमो विधुः ॥१६॥ न पश्चान्न पुरा लक्ष्मीऊध्री' पद्म क्षणे क्षणे । वक्त्यन्यां गृह्णती शोभा सा स्याद्वादं तदानने ॥१६२॥ चन्द्रे तीवकरोत्सन्ना पद्म शीतकराहता। लक्ष्मीः सान्यैव तद्वक्त्रे 'जयलक्ष्मीकरग्रहात् ॥१६३॥ रात्राविन्दुर्दिवाम्भोज क्षयीन्दुर निवारिजम् । पूर्णमेव विकास्येव तद्वक्त्रं भात्यदिवम् ॥१६४॥ लक्ष्मीस्त स्यक्षितुस्तेन वीक्षितस्यापि निश्चिता । किं पद्म तादृशं येन तद्वक्त्रमुपमीयते ॥१६॥ कुमार्या त्रिजगज्जेता जितः पुष्पशरासनः । स वीरः कः परो लोके यो न जय्योऽनतोऽनया ॥१६६॥ कमायैव जितः कामो वीरः पश्चाज्जयो जितः । स्त्रीसृष्टि: कियती नाम विजयेऽस्या. सहश्रिया ॥१६७॥
उत्कृष्ट अणु थे और उनसे बाकी बचे हुए अणु तृणके समान तुच्छ थे ॥१६०॥ चन्द्रमा उसके मुखको उपमाके योग्य नहीं था क्योंकि यदि पूर्ण चन्द्रमाकी उपमा देते हैं तो वह बहुत वृद्ध अर्थात् बड़ा है, उसका क्षय निकट है, कलंक उसका स्पष्ट दिखलाई देता है और राहु उसे दबा देता है । यदि अपूर्ण चन्द्रमाकी उपमा देते हैं तो वह स्वयं अपूर्ण है-अधूरा है । भावार्थ-उसका मुख तरुण, अविनश्वर, निष्कलंक और पूर्ण था इसलिये पूर्ण अथवा अपूर्ण कोई भी चन्द्रमा उसके मखकी उपमाके योग्य नहीं था ।।१६। यदि कमलकी उपमा दी जावं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि कमलमें विकसित होनेके पहले लक्ष्मी नहीं थी और न पीछे रहती है वह तो क्षण क्षणमें विकसित होती रहती है परन्तु उसके मुखपर की लक्ष्मी एक विलक्षण शोभाको ग्रहण करती हुई स्याद्वादका स्वरूप प्रकट करती थी। भावार्थ-उसके मुखकी शोभा सदा एक सी रहकर भी क्षण क्षणमें विलक्षण शोभा धारण करती थी इसलिये कमलकी शोभासे कहीं अच्छी थी और इस प्रकार स्याद्वादका स्वरूप प्रकट करती थी क्योंकि जिस प्रकार स्याद्वाद द्रव्याथिक नयसे एकरूप रहकर भी पर्यायार्थिक नयसे नवीन नवीन रूपको प्रकट करता है उसी प्रकार उसके मुखकी लक्ष्मी भी सामान्यतया एकरूप रहकर भी प्रतिक्षण विलक्षण शोभा धारण करती हुई अनेकरूप प्रकट करती थी ॥१६२॥ चन्द्रमाकी शोभा सूर्यसे नष्ट हो जाती है और कमलकी शोभा चन्द्रमासे नष्ट हो जाती है परन्तु उसके मुखकी शोभा जयकुमारकी लक्ष्मीका हस्त ग्रहण करनेसे विलक्षण ही हो रही थी ॥१६३॥ चन्द्रमा रातमें मुशोभित होता है और कमल दिन में प्रफुल्लित रहता है, चन्द्रमाका क्षय हो जाता है और कमल मुरझा जाता । है परन्तु उसका मुख पूर्ण ही था, विकसित ही था और रातदिन सुशोभित ही रहता था ॥१६४॥. सुलोचनाके मुखको जो देखता था उसकी शोभा बढ़ जाती थी और सुलोचनाका मुख जिसे देखता था उसकी शोभा भी निश्चित रूपसे बढ़ जाती थी। कमलमें क्या ऐसा गुण है जिससे कि उसे सुलोचनाके मुखकी उपमा दी जा सके ?॥१६५।। उसने कुमारी अवस्थामें ही तीनों जगत्को जीतनेवाला कामदेव जीत लिया था फिर भला संसारमें ऐसा दूसरा कौन वीर था जो आगे युवावस्थामें उसके द्वारा न जीता जाय ? ॥१६६।। इसने कुमारी अवस्थामें कामदेव को जीत लिया था और तरुण अवस्थामें जयकुमारको जीता था फिर भला इसके जीतनेके लिये
१ राहगोचरः। (विषयः) । २ कलाशेषोऽपि । कलाहीन इत्यर्थः । बालचन्द्रोऽपि । ३ विकासशीला। ४ लक्ष्मीः । ५ हता। ६ जयस्य लक्ष्मीः । ७ -त्यहर्निशम् अ०, प०, स०, इ०, ल०, म० । ८ धर्मस्य । ६ वक्रेण। १० येन धर्मेण सह। ११ तादृशं धर्म पक्षे किमस्ति ? नास्तीत्यर्थः । वीक्षितस्यापि अपिशब्दात् तद्धर्मो न दृष्टोऽस्ति । यद्यपि दृष्टस्य तस्य पद्मस्थितधर्मस्य लक्ष्मीः शोभा तेन सह तद्वक्त्रेण सह ईक्षितुः वीक्षमारणस्य जनस्य निश्चिता स्यात् । १२ पुष्पशरासनो जितः इत्यनेन कमपि पुरुषं नेच्छति इत्यर्थः । १३ यौवने ।
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