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त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व श्रोत्रपात्रालि कृत्वा पीत्वा धर्मरसायनम् । अजरामरतां प्राप्तुम् उपयुध्वमिदं बुधाः ॥३६॥ नूनं पुण्यं पुराणाब्धेर्मध्यमव्यासितं मया। तत्सुभाषितरत्नानि सञ्चितानीति निश्चितिः॥३७॥ सुदूरपारगम्भीरमिति नात्र भयं मम । पुरोगा गुरवः सन्ति प्रष्ठाः सर्वत्र दुर्लभाः ॥३८॥ पुराणस्यास्य संसिद्धिर्नाम्ना स्वेनैव सूचिता । निर्वक्ष्याम्यत्र नो वेत्ति ततो नास्म्यहमाकुलः ।३६॥ पुराणं मार्गमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम् । भवाब्धेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमुच्यते ॥४०० अर्थो मनसि जिह्वाग्रे शब्दः सालकृति स्तयोः । अतः पुराणसंसिद्धर्नास्ति कालविलम्बनम् ॥४१॥ पाकरेष्विव रत्नानाम् ऊहानां नाशये क्षयः । विचित्रालङकृतीः कर्तुदौर्गत्यं कि कवेः कृतीः ॥४२॥ विचित्रपदविन्यासा रसिका सर्वसुन्दरा। कृतिः सालकृतिर्न स्यात् कस्ययं कामसिद्धये ॥४३॥ सञ्चितस्यैनसो हन्त्री नियन्त्री चागमिष्यतःप्रामन्त्रिणी० च पुण्यानां ध्यातव्ययं कृतिः शुभा ॥४४॥
समुद्रसे उत्पन्न हुए इस धर्मरूपी महारत्नको कौस्तुभ मणिसे भी अधिक मानकर अपने हृदयमें धारण करें। ॥३५।। पण्डितजन कामरूपी पात्रकी अंजलि बना इस धर्मरूपी रसायनको पीकर अजर अमरपना प्राप्त करने के लिये उद्यम करें ॥३६॥ मुझे यह निश्चय है कि मैंने अवश्य ही इस पुराणरूपी समद्रके पवित्र मध्यभागमें अधिष्ठान किया है और उससे सभाषितरूपी रत्नोंका संचय किया है ॥३७।। यह पुराणरूपी समुद्र अत्यन्त गंभीर है, इसका किनारा बहुत दूर है इस विषयका मुझे कुछ भी भय नहीं है क्योंकि सब जगह दुर्लभ और सबमें श्रेष्ठ गुरु जिनसेनाचार्य मेरे आगे हैं ॥३८।। इस पुराणकी सिद्धि अपने महापुराण इस नामसे ही सूचित है इसलिये मैं इसे कह सकूँगा अथवा इसमें निर्वाह पा सकूँगा या नहीं इसकी मुझे कुछ भी आकुलता नहीं है ॥३९॥ जिनसेनाचार्य के अनुगामी शिष्य प्रशस्त मार्गका आलम्बन कर अवश्य ही संसाररूपी समुद्रसे पार होनेकी इच्छा करते हैं फिर इस पुराणके पार होनेकी बात तो कहना ही क्या है ? भावार्थ-जिनसेनाचार्यके द्वारा बतलाये हुए मार्गका अनुसरण करनेसे जब संसाररूपी समुद्रका पार भी प्राप्त किया जा सकता है तब पुराणका पार (अन्त) प्राप्त करना क्या कठिन है ? ।।४०।। अर्थ मनमें हैं, शब्द जिह्वाके अग्रभागपर हैं और उन दोनोंके अलंकार प्रसिद्ध हैं ही अतः इस पुराणकी सिद्धि (पूर्ति) होने में समयका विलम्ब नहीं है अर्थात् इसकी रचना शीघ्र ही पूर्ण होगी ॥४१॥ जिस प्रकार खानिमें रत्नोंकी कमी नहीं है उसी प्रकार जिसके मनमें तर्क अथवा पदार्थोकी कमी नहीं है फिर भला जिसमें अनेक प्रकारके अलंकार हैं ऐसे काव्यके बनानेवाले कविको दरिद्रता किस बातकी है ? ॥४२॥ मेरी यह रचना अत्यन्त सुन्दरी स्त्रीके समान है क्योंकि जिस प्रकार सुन्दर स्त्री विचित्र पदन्यासा अर्थात् अनेक प्रकारसे चरण रखनेवाली होती है उसी प्रकार यह रचना भी विचित्र पदन्यासा अर्थात् अनेक प्रकारके सबन्त तिङन्त रूप पद रखनेवाली है, जिस प्रकार सन्दर स्त्री रसिका अर्थात रसीली होती है उसी प्रकार यह रचना भी रसिका अर्थात् अनेक रसोंसे भरी हुई है, और जिस प्रकार सुन्दर स्त्री सालंकारा अर्थात कटक कुण्डल आदि आभूषणोंसे सहित होती है उसी प्रकार यह रचना भी सालंकारा अर्थात् उपमा रूपक आदि अलंकारोंसे सहित है। इस प्रकार मेरी यह रचना सुन्दरी स्त्रीके समान भला किसके मनोरथकी सिद्धिके लिये न होगी? भावार्थइसके पढ़नेसे सबके मनोरथ पूर्ण होंगे ॥४३॥ यह शुभ रचना पहलेके संचित पापोंको नष्ट
१ उपयुञ्जीध्वम् । २ प्रसिद्धा । ३ अलङ्कारश्च जिह्वाग्रे वर्तते। ४ शब्दार्थयोः । ५ -लङकृते: कर्तुदोगत्यं अ०, प०, ल०, म० । -लङ्कृ तेः कर्तु दौर्गत्यं इ०, स०। ६ कृतेः अ०, प०, ल०, म०, इ०, स०। ७ -सुन्दरी ल०, म०। ८ विनाशिनी। ६ प्रतिषेद्धी। १० आमन्त्रणी स० ।
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