________________
३५२
महापुराणम्
युगभारं' वहन्नेकश्चिरं धर्मरथं पृथुम् । व्रतशीलगुणापूर्ण चित्रं वर्तयति स्म यः ॥७॥ -तमेकमक्षरं ध्यात्वा व्यक्तमेकमिवाक्षरम् । वक्ष्ये समोठ्य लक्ष्याणि' तत्पुराणस्य चूलिकाम् ॥८॥ स्वोक्ते प्रयुक्ताः सर्वेनो रसा गुरुभिरेव ते । 'स्नेहादिह तदुत्सृष्टान्र भक्त्या तानुपयुज्महे ॥६॥ रागादीन् दूरतस्त्यक्त्वा शृङगारादिरसोक्तिभिः । पुराणकारकाः शुद्धबोधाः शुद्धा मुमुक्षवः ॥१०॥ निमितोऽस्य पुराणस्य सर्वसारो महात्मभिः। तच्छेषे यतमानानां प्रासादस्येव नः श्रमः॥११॥ पुराणे प्रौढशब्दार्थ सत्पत्रफलशालिनि । वचांसि पल्लवानीव कर्णे कुर्वन्तु मे बुधाः ॥१२॥ अचं रुभिरेवास्य पूर्व निष्पादितं परैः। परं निष्पाद्यमानं सच्छन्दोवन्नातिसुन्दरम् ॥१३॥ इक्षोरिवास्य पूर्वार्द्ध मेवाभावि० रसावहम् । यथा तथास्तु निष्पत्तिरिति प्रारभ्यते मया ॥१४॥
अनन्विष्य मयि प्रौढिं धर्मोऽयमिति गृह्यताम् । चाटुके स्वादुमिच्छन्ति न भोक्तारस्तु भोजनम् ॥१५॥ है ॥६॥ और आश्चर्य है कि जिन्होंने अकेले ही बहुत कालतक इस अवसर्पिणी युगके भारको (पक्षमें जुवारोके बोझको) धारण करते हुए व्रतशील आदि गुणोंसे भरे हुए बड़े भारी धर्मरथको चलाया था ॥७॥ ऐसे उन अद्वितीय अविनाशी भगवान् वृषभदेवको एक प्रसिद्ध ओम् अक्षरके समान ध्यान कर तथा पूर्वशास्त्रोंका विचार कर इस महापुराणकी चूलिका कहता हूं ॥८॥ हमारे गुरु जिनसेनाचार्य ने हमारे स्नेहसे अपने द्वारा कहे हुए पुराणमें सब रस कहे हैं इसलिये उनकी भक्तिसे छोड़े गये रसोंका ही हम आगे इस ग्रन्थमें उपयोग करेंगे ॥९॥ राग आदिको दूरसे ही छोड़कर शृङ्गार आदि रसोंका निरूपण कर पुराणोंकी रचना करनेवाले शुद्ध ज्ञानी, पवित्र और मोक्षकी इच्छा करनेवाले होते हैं ॥१०॥ इस पुराणका समस्त सार तो महात्मा जिनसेनाचार्य ने पूर्ण ही कर दिया है अब उसके बाकी बचे हुए अंशमें प्रयत्न करनेवाले हम लोगोंका परिश्रम ऐसा समझना चाहिये जैसा कि किसी मकानके किसी बचे हुए भागको पूर्ण करने के लिये थोड़ा सा परिश्रम करना पड़ा हो ॥११॥ यह पुराणरूपी वृक्ष शब्द और अर्थसे प्रौढ़ है तथा उत्तम उत्तम पत्ते और फलोंसे सुशोभित हो रहा है इसमें मेरे वचन नवीन पत्तोंके समान हैं इसलिये विद्वान् लोग उन्हें अवश्य ही अपने कर्णोपर धारण करें। भावार्थ-जिस प्रकार वृक्षके नये पत्तोंको लोग अपने कानोंपर धारण करते हैं उसी प्रकार विद्वान् लोग हमारे इन वचनोंको भी अपने कानोंमें धारण करें अर्थात् स्नेहसे श्रवण करें ॥१२॥ इस पुराणका पूर्व भाग गुरु अर्थात् जिनसेनाचार्य अथवा दीर्घ वर्णोसे बना हुआ है और उत्तर भाग पर अर्थात् गुरुसे भिन्न शिष्य (गुणभद्र) अथवा लघु वर्णो के द्वारा बनाया जाता है इसलिये क्या वह छन्दके समान सन्दर नहीं होगा? अर्थात अवश्य होगा। भावार्थ-जिस प्रकार गुरु और लघु वर्णो से बना हुआ छन्द अत्यन्त सुन्दर होता है उसी प्रकार गुरु और शिष्यके द्वारा बना हुआ यह पुराण भी अत्यन्त सुन्दर होगा ॥१३।। 'जिस प्रकार ईख का पूर्वार्ध भाग ही रसीला होता है उसी प्रकार इस पुराणका भी पूर्वार्ध भाग ही रसीला हो' यह विचार कर मैं इसके उत्तरभागकी रचना प्रारम्भ करता हूं ॥१४॥ मुझमें प्रौढता (योग्यता) की खोज न कर इसे केवल धर्म समझकर ही ग्रहण करना चाहिये क्योंकि भोजन करनेवाले प्रिय वचन
१ चतुर्थकालधुरम् । दण्डभेदञ्च । २ अविनश्वरम् । ३ ओङकारमिव । ४ पूर्वोक्तशास्त्राणि । ५ पुरुनाथपुराणस्य । ६ अग्रम् । ७ आत्मना प्रणीते पुराणे। ८ अस्माकम् । ६ मयि प्रेम्णः । १० उत्तरपुराणे। ११ तज्जिनसेनाचार्येणावशेषितान् (प्रणीतानेव)। १२ रसान् । १३ महात्मकः ब०। १४ निर्मितप्रासादावशेषे यतमानानामिव । १५ जिनसेनाचार्यैः । छन्दःपक्षे गुर्वक्षरः । १६ पुराणस्य । १७ अस्मदादिभिः । पक्षे लघ्वक्षरः अल्पाक्षरैः। १८ अपरार्द्धम् । १६ उक्तात्युक्तादिछन्दोभेदवत् । २० निश्चितम् । २१ निष्ठा । २२ अविमृग्य। २३ प्रियवचने ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org