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महापुराणम् [उत्तरखण्डम्] त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व
श्रियं तनोतु स श्रीमान् वृषभो वृषभध्वजः। यस्यैकस्य गतेर्मुक्तेमार्गश्चित्रं महानभूत् ॥१॥ विक्रम कर्मचक्रस्य यशकाभ्यचितक्रमः। "प्राक्रम्य धर्मचक्रण चके त्रैलोक्यचक्रिताम् ॥२॥ योऽस्मिंश्चतुर्थकालादौ दिनादौ वा दिवाकरः । जगदुद्योतयामास प्रोद्गच्छद्वाग्गभस्तिभिः॥३॥ नष्टमष्टादशाम्भोधिकोटीकोटोष कालयोः । निर्वाणमार्ग निदिश्य येन सिद्धाश्च द्धिताः ॥४॥ तोर्यकृत्सु स्वतः प्राग्यो नामादानपराभवः । यमस्मिनस्पृशन्नासौ स्वसूनुमिव चक्रिषु ॥५॥ येन प्रकाशिते मुक्तेर्गिs"स्मिन्नपरेषु तत् । प्रकाशित प्रकाशोक्तवैययं तीर्थकृत्स्वभूत् ॥६॥
अथानन्तर, जिनकी ध्वजामें वृषभका चिह्न है और सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि जिन एकके जानेसे ही बहुत बड़ा मोक्षका मार्ग बन गया ऐसे अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मीको धारण करनेवाले श्री वृषभदेव सबका कल्याण करें ॥१॥ जिनके चरणकमलकी इन्द्र स्वयं पूजा करता है और जिन्होंने धर्मचक्रके द्वारा कर्मसमूहके पराक्रमपर आक्रमणकर तीनों लोकोंका चक्रवर्तीपना प्राप्त किया है ॥२॥ दिनके प्रारम्भमें सूर्यकी तरह इस चतुर्थकालके प्रारम्भमें उदय होकर जिन्होंने फैलती हुई अपनी वाणीरूपी किरणोंसे समस्त जगत्को प्रकाशित किया है अर्थात् दिव्य ध्वनिके द्वारा समस्त तत्त्वोंका उपदेश दिया है ॥३॥ उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काल के अठारह कोड़ी सागरतक जो मोक्षका मार्ग नष्ट हो रहा था उसका निर्देशकर जिन्होंने सिद्धों की संख्या बढ़ाई है ॥४॥ जिस प्रकार चक्रवतियोंमें अपने पुत्र भरत चक्रवर्तीको उसके पहले किसी अन्य चक्रवर्तीका नाम लेनेसे उत्पन्न हुआ पराभव नहीं छू सका था उसी प्रकार तीर्थङ्करों में अपने पहले किसी अन्य तीर्थङ्करका नाम लेनेसे उत्पन्न हुआ पराभव जिन्हें छू भी नहीं सका था। भावार्थ-जिस प्रकार भरत इस युगके समस्त चक्रवर्तियोंमें पहले चक्रवर्ती थे उसी प्रकार जो इस युगके समस्त तीथङ्करोंमें पहले तीर्थ कर थे ॥५॥ जिनके द्वारा इस मोक्षमार्गके प्रकाशित किये जानेपर अन्य तीर्थ करोंमें प्रकाशित हुए मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेके कारण उपदेशकी व्यर्थता हुई थी। भावार्थ-इस समय जो मोक्षका मार्ग चल रहा है उसका उपदेश सबसे पहले भगवान् वृषभदेवने ही दिया था उनके पीछे होनेवाले अन्य तीर्थ करोंने भी उसी मार्गका उपदेश दिया है इसलिये उनका उपदेश पुनरुक्त होनेके कारण व्यर्थ सा जान पड़ता
१ गमनात् । २ मुक्तिमार्ग-प०, ल०, म० । ३ कर्मराजसैन्यस्य । ४ जित्वा । ५ चतुर्थकालस्यादौ। ६ इव । ७ उत्सर्पिण्यवसर्पियोः। ८ उपदेशं कृत्वा। ६ अजितादिषु । १० आत्मनः पुरुजिनात् । ११ पूर्वस्मिन् काले । १२ सांमदानपराभवः इति पाठस्य ल० पुस्तके संकेतः । नामदानपराभवः इति पाठस्य 'द०' पुस्तके संकेतः । अदानपराभव:-आहारादिदानाभाव इति पराभवः । नामदानपराभव इति पाठे कीर्तिदानयोरभाव इति पराभवः । १३ चतुर्थकालस्यादौ। १४ वृषभेण । १५ चतुर्थकालादौ । १६ मोक्षमार्गप्रकाशनम् । १७ प्रकाशितस्य प्रकाशने प्रोक्तव्यर्थत्वम् ।
* भगवान् वृषभदेव तृतीय कालके अन्तमें उत्पन्न हुए और तृतीय कालमें ही मोक्ष पधारे हैं इसलिए आचार्य गुणभद्रने चतुर्थ कालके आदिमें होना किस दृष्टिसे लिखा है यह विचारणीय है।
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