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द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व
३४३ कयञ्च पालनीयास्ताः प्रजाश्चेत्तनपञ्चतः । दुष्टर गोपालदृष्टान्तम् ऊरीकृत्य विवृण्महे ॥१३८॥ गोपालको यथा यत्नाद् गाः संरक्षत्यतन्द्रितः । मापालश्च प्रयत्नेन तथा रक्षेन्निजाः प्रजाः ॥१३॥ तद्यथा यदि गौः कश्चिद् अपराधी स्वगोकुले। तमङगच्छेदनाद्युग्रदण्ड स्तीबमयोजयन् ॥१४०॥ पालयेदनुरूपण दण्डेनेव नियन्त्रयन् । यथा गोपस्तथा भूपः प्रजाः स्वाः प्रतिपालयत् ॥१४॥ तीक्ष्णदण्डो हिनपतिस्तोत्रनु जाजाः । ततो विरक्तप्रकृति' जयुरेनममः प्रजाः ॥१४२॥ यथा गोपालको मौल पशुवर्ग स्वगोकुले । पोषयन्नेव पुष्टः स्याद् गोपोषं प्राज्यगोधनः१५ ॥१४३॥ तथैष नुपतिमौलतन्त्रमात्मीयनेकतः१३ । पोषयन्पुष्टिमाप्नोति स्व परस्मिश्च मण्डले ॥१४४॥ पुष्टो मौलेन तन्त्रेण यो हि पार्थिवकुञ्जरः। स जयेत् पृथिवीमेनां सागरान्तामयत्नतः ॥१४॥ प्रभग्नचरणं किञ्चिद् गोद्रव्यं चेत् प्रमादतः। गोपालस्तस्य सन्धानं कुर्याद् बन्धाद्युपक्रमः ॥१४६॥ बद्धाय च त गावस्म दत्वा दाढयें नियोजयेत् । उपद्रवान्तरेऽप्येवम् प्राशु कुर्यात् प्रतिक्रियाम् ॥१४७॥ यथा तथा नरेन्द्रोऽपि स्वबले वणितं भटम् । प्रतिकुर्याद१५ भिषग्वर्यान्नियोज्यौषधसम्पदा ॥१४८॥
बुढीकृतस्य चास्योद्ध" जीवनादि"प्रचिन्तयेत् । सत्येवं भृत्यवर्गोऽस्य शश्वदाप्नोति नन्दथुम् ॥१४६॥ उस प्रजाका किस प्रकार पालन करना चाहिये यदि आप यह जानना चाहते हैं तो हम ग्वालियेका सुदढ उदाहरण लकर विस्तारक साथ उसका वर्णन करते हैं ।।१३८॥ जिस प्रकार ग्वालिया आलस्यरहित होकर बड़े प्रयत्नसे अपनी गायोंकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको बड़े प्रयत्लस अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिये ॥१३९।। आग इसीका खुलासा करते हैं-यदि अपनी गायोंके समुहमें कोई गाय अपराध करती है तो वह ग्वालिया उसे अंगछेदन आदि कठोर दण्ड नहीं देता हुआ अनुरूप दण्डसे नियन्त्रण कर जिस प्रकार उसकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको भी अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिये ॥१४०-१४१॥ यह निश्चय है कि कठोर दण्ड देनेवाला राजा अपनी प्रजाको अधिक उद्विग्न कर देता है इसलिये प्रजा ऐसे राजाको छोड़ देती है तथा मंत्री आदि प्रकृतिजन भी ऐसे राजासे विरक्त हो जाते हैं ।।१४२।। जिस प्रकार ग्वालिया अपने गायोंके समहमें मुख्य पशुओं के समूहकी रक्षा करता हुआ पुष्ट अर्थात् सम्पत्तिशाली होता है क्योंकि गायोंकी रक्षा करके ही यह मनष्य विशाल गोधनका स्वामी हो सकता है, उसी प्रकार राजा भी अपने मुख्य वर्गकी मुख्य रूपसे रक्षा करता हुआ अपने और दूसरेके राज्यमें पुष्टिको प्राप्त होता है ।।१४३-१४४॥ जो श्रेष्ठ राजा अपने अपने मुख्य बलसे पुष्ट होता हे वह इस समुद्रान्त पृथिवीको बिना किसी यत्नके जीत लेता है ॥१४५॥ यदि कदाचित प्रमादस किसी गायका पैर टट जाय तो ग्वालिया उसे बांधना आदि उपायोंसे उस पेरको जोड़ता है, गायको बांधकर रखता है-बंधी हुई गायके लिये घास देता है और उसके पैर को मजबूत करने में प्रयत्न करता है तथा इसी प्रकार उन पशुओंपर अन्य उपद्रवोंके आनेपर भी वह शीघ्र ही उनका प्रतिकार करता है ॥१४६-१४७॥ जिस प्रकार अपने आश्रित गायों की रक्षा करने के लिये ग्वालिया प्रयत्न करता है उसी प्रकार राजाको भी चाहिये कि वह अपनी सेनामें घायल हुए योद्धाको उत्तम वैद्यसे औषधिरूप संपदा दिलाकर उसकी विपत्तिका प्रतिकार करे अर्थात् उसकी रक्षा करे ॥१४८।। और वह वीर जब अच्छा हो जावे तो राजाको उसकी उत्तम आजीविका कर देनेका विचार करना चाहिये क्योंकि ऐसा करनेसे भृत्यवर्ग सदा
१ प्रपञ्चनम् ल०, म० । प्रपञ्चते अ०, स० । २ समद्धम् । ३ स्वीकृत्य । ४ अनालस्यः । ५ दोषी । ६ संयोजनमकुर्वन् । ७ नियमयन् । ८ उद्वेगं कुर्यात् । ६ त्यक्तानुरागप्रजापरिवारवन्तम् । १० गाः पोषयन्तीति गोपोषस्तम् । ११ बहुगोत्रजः । १२ बलम् । १३ एकस्मिन् स्थाने। १४ गोधनम् । १५ प्रतिकारं कुर्यात् । १६ वैद्यश्रेष्ठात् । १७ अधिकम् । १८ जीवितादिवम् । १६ आनन्दम् ।
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