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महापुराणम् . तयन्द्रियक सौन्दर्यः स्नानमाल्यानुलेपनः । विभूषणश्च सौन्दर्य संस्कर्तुमभिलष्यति ॥५६॥ दोषधातुमलस्थानं देहवैन्द्रियकं वहन् । पुमान्विष्वाणषज्यतद्रक्षास्वाकुलो भवेत् ॥६०॥ दोवान्पश्यश्च 'जात्यादीन् देहातस्त ज्जिहासया प्रेक्षाकारी तपः कर्तु प्रयस्यति यदा कदा ॥१॥ स्वीकुर्वनिन्द्रियावासं सुखमायुश्च तद्गतम् । आवासान्तरमन्विच्छेत् प्रेक्षमाणः प्रणश्वरम् ॥६२॥ यस्त्वतीन्द्रियविज्ञानदृग्वीर्यसुखसन्ततिः । शरीरावाससौन्दर्यैः स्वात्मभूतैरधिष्ठितः ॥६३॥ तस्योक्तदोषसंस्पर्शो° भवेन्लव कदाचन । तद्वानाप्तस्ततो जयः स्यादनाप्तस्त्वतद्गुणः ॥६४॥ स्फटीकरणमस्यैव वाक्यार्थस्याधुनोच्यते । यतोऽनाविष्कृतं तत्त्वं तत्त्वतो" नावबुध्यते ॥६॥ तद्यथाऽतीन्द्रियज्ञानः शास्त्रार्थ न परं श्रयेत् । शास्ता स्वयं त्रिकालज्ञः केवलामललोचनः ॥६६॥ तथाऽतीन्द्रियदृग्नार्थी स्यादपूर्वार्थ दर्शन । तेनादृष्टं न वै किञ्चिद्युगपद्विश्वदृश्वना ॥६७॥
क्षायिकानन्तवीर्यश्च नान्यसाचिव्यमीक्षते । कृतकृत्यः स्वयं प्राप्तलोकाग्रशिखरालयः ॥६॥ अत्यन्त उत्कंठित होता हुआ इन्द्रियोंके विषयोंकी तृष्णासे पराधीन सुखकी इच्छा करता है ॥५८।। इसी प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाली सुन्दरतासे युक्त पुरुष स्नान, माला, विलेपन और आभूषण आदिसे अपनी सुन्दरताका संस्कार करना चाहता है। भावार्थ-आभूषण आदि धारणकर अपने शरीरको सुन्दरता बढ़ाना चाहता है ॥५९॥ दोष, धातु और मलके स्थान
रूप इस इन्द्रियजनित शरीरको धारण करता हआ पुरुष भोजन और औषधि आदिके द्वारा उसकी रक्षा करने में सदा व्याकुल रहता है ॥६०॥ जन्म मरण आदि अनेक दोषोंको देखता हुआ और शरीरसे दुखी हुआ कोई विचारवान् पुरुष. जब उसे छोड़नेकी इच्छासे तप करनेका प्रयास करता है तब वह इन्द्रियोंके निवास स्वरूप शरीरको, उससे सम्बन्ध रखनेवाले सुख और आयको भी स्वीकार करता है और अन्तमें उसे भी नष्ट होता हआ देखकर दूसरे ऐन्द्रियिक निवासकी इच्छा करता है। भावार्थ-तपश्चरण करनेका इच्छुक पुरुष यद्यपि शरीरको हेय समझकर छोड़ना चाहता है परन्तु साधन समझकर उसे स्वीकार करता है और जब तक इष्ट-मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक प्रथम शरीरके जर्जर हो जानेपर द्वितीय शरीरकी इच्छा करता रहता है ।।६१-६२।। परन्तु जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान, अतीन्द्रिय दर्शन, अतीन्द्रिय बल और अतीन्द्रिय सुखकी संतान है और जो अपने आत्मस्वरूप शरीर, आवास तथा सुन्दरता आदिसे सहित है उसके ऊपर कहे हुए दोषोंका स्पर्श कभी नहीं होता है, इसलिये जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान, वीर्य और सुखकी संतान है उसे ही आप्त जानना चाहिये और जिसके उक्त गुण नहीं हैं उसे अनाप्त समझना चाहिये ॥६३-६४।। अब आगे इसी वावयार्थका स्पष्टीकरण करते हैं क्योंकि जबतक किसी पदार्थका स्पष्टीकरण नहीं हो जाता है तब तक उसका ठीक ठीक ज्ञान नहीं होता है ॥६५॥ जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान है ऐसा पुरुष किसी दूसरे शास्त्र के अर्थका आश्रय नहीं लेता, किन्तु केवलज्ञानरूपी निर्मल नेत्रोंको धारण करनेवाला और तीनों कालोंके सब पदार्थों को जाननेवाला वह स्वयं सवको उपदेश देता है ॥६६॥ इसी प्रकार जिसके अतीन्द्रिय दर्शन हैं ऐसा जीव कभी अपूर्व पदार्थके देखनेकी इच्छा नहीं करता क्योंकि जो एक साथ समस्त पदार्थों को देखता है उसका न देखा हुआ कोई पदार्थ भी तो नहीं है ।।६७।। जिसके क्षायिक अनन्तवीर्य है वह पुरुष भी किसी अन्य जीवकी सहायता नहीं चाहता किन्तु ... १ आहार । २ देहरक्षणम् । ३ उत्पत्त्यादीन । ४ शरीरपीडितः। ५ तत्त्यागेच्छया। ६ समीक्ष्यकारी। ७ प्रयत्न करोति। ८ इन्द्रियसुखहेतुप्रासादिकम् । ६ विचारयन्। १० स्पर्शनम् । ११ अतीन्द्रियविज्ञानादिमान् । १२ ततः कारणात् । १३ अतीन्द्रियेत्यादिश्लोकद्वयार्थस्य। १४ निश्चयेन । १५ शास्त्रनिमित्तम्। १६ अन्यसहायत्वम् ।
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