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महापुराणम्
बहिरन्त र्मलापायात् श्रगर्भवसतिर्मता । कर्मनोकमविश्लेषात् स्यादगौरवलाघवम् ॥ १०४॥ तादवस्थ्यं गुणैरुद्धः प्रक्षोभ्यत्वमतो भवेत् । श्रविलीनत्वमात्मीयैर्गुणैरप्यवपृक्तता ॥ १०५ ॥ प्राग्देहाकारमूर्तित्वं यदस्याहेयमक्षरम् । साऽभीष्टा परमा काष्ठा योगरूपत्वमात्मनः ॥ १०६ ॥ लोकाग्रवासस्त्र लोक्य शिखरे शाश्वती स्थितिः । श्रशेषपुरुषार्थानां निष्ठा' परमसिद्धता ॥ १०७ ॥ यः समप्रैर्गुणैरेभिः ज्ञानादिभिरलङ्कृतः । किं तस्य कृतकृत्यस्य परद्रव्योपसर्पणः ॥ १०८ ॥ एष संसारिदृष्टान्तो व्यतिरेकेण' साधयेत् । परमात्मानमात्मानं प्रभु मप्रतिशासनम् ॥१०६॥ त्रिभिनिदर्शनं रोभिः श्राविष्कृतमहोदयः । स प्राप्तस्तन्मते धीरैः श्राधेया मतिरात्मनः ॥ ११० ॥ * एवं हि क्षत्रियश्रेष्ठो भवेद् वृष्टपरम्परः । मतान्तरेषु दौःस्थित्यं भावयन्नुपपत्तिभिः ॥ १११ ॥ दिगन्तरेभ्यो व्यावर्त्य प्रबुद्धां मतिमात्मनः । सन्मार्गे स्थापयसेवं कुर्यान्मत्यनुपालनम् ॥ ११२ ॥ प्रत्रिकामुत्रिकापायात् परिरक्षणमात्मनः । श्रात्मानुपालनं नाम तदिदानीं विवृष्महे ॥ ११३ ॥ श्रात्रिकापायसंरक्षा सुप्रतीतैव धीमताम् । विषशस्त्राद्यपायानां परिरक्षणलक्षणा ॥ ११४ ॥
कभी क्षरण अर्थात् विनाश नहीं होता इसलिये इसमें अक्षरता अर्थात् अविनाशीपन है और आत्मासे उत्पन्न हुए श्रेष्ठ युगोंसे इसका प्रमाण नहीं किया जा सकता इसलिये इसमें अप्रमेयपना है ।। १०३ ।। बहिरंग और अन्तरंग मलका नाश हो जानेसे इसका गर्भावास नहीं माना जाता है और कर्म तथा नोकर्मका नाश हो जानेसे इसमें गुरुता और लघुता भी नहीं होती है ।। १०४।। यह आत्मासे उत्पन्न हुए प्रशंसनीय गुणोंसे अपने स्वरूप में अवस्थित रहता है इसलिये इसमें अक्षोभ्यपना है और आत्माके गुणोंसे कभी पृथक् नहीं होता इसलिये अविलीनपना है ॥ १०५ ॥ जो कभी न छूटने योग्य और कभी न नष्ट होने योग्य पहले के शरीरके आकार इसकी मूर्ति रहती है वही इसकी परम हद है और वही इसकी योगरूपता है ॥ १०६ ॥ तीनों लोकों के शिखरपर जो इसकी सदा रहनेवाली स्थिति है वही इसका लोकाग्रवास गुण है और जो समस्त पुरुषार्थों की पूर्णता है वही इसकी परमसिद्धता है ॥ १०७॥ इस प्रकार जो इन ज्ञान आदि समस्त गुणोंसे अलंकृत है उस कृतकृत्य हुए मुक्त जीवको अन्य द्रव्यों की प्राप्ति से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥ १०८ ॥ यह संसारी जीवका दृष्टान्त व्यतिरेक रूपसे आत्मा को, जिसपर किसीका शासन नहीं है और जो प्रभुरूप है ऐसा परमात्मा सिद्ध करता है । भावार्थ - इस संसारी जीवके उदाहरणसे यह सिद्ध होता है कि यह आत्मा ही परमात्मा हो जाता है ।। १०९ ।। इस प्रकार इन तीन उदाहरणोंसे जिसका महोदय प्रकट हो रहा है वही आप्त है, उसी आप्तके मतमें धीरवीर पुरुषोंको अपनी बुद्धि लगानी चाहिये ।। ११० ।। इस तरह जिसने सब परम्परा देख ली है, और जो अन्य मतों में युक्तियोंसे दुष्टताका चिन्तवन करता है वही सब क्षत्रियों में श्रेष्ठ कहलाता है ॥ १११ ॥ क्षत्रियको चाहिये कि वह अपनी जागृत बुद्धिको अन्य दिशाओं अर्थात् मतोंसे हटाकर समीचीन मार्ग में लगाता हुआ उसकी रक्षा करे ॥। ११२ ।। इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी अपायोंसे आत्माकी रक्षा करना आत्माका पालन करना कहलाता है । अब आगे इसी आत्माके पालनका वर्णन करते हैं ।। ११३ ।। विष शस्त्र आदि अपायोंसे अपनी रक्षा करना ही जिसका लक्षण है ऐसी इस लोकसम्बन्धी अपायोंसे
१ अगुरुलघुत्वम् । २ स्वस्वरूपावस्थानम् । ३ न केवलं देहादिभिः । ज्ञानादिगुणैरपि । ४ अत्यक्तता । —रप्यपवृत्तता । 'अपवृत्तता' इति पाठे अपवर्तनत्वं गुणगुणीभावराहित्यम् । ५ निष्पत्तिः । परिसमाप्तिरित्यर्थः । ६ व्यतिरेकिदृष्टान्तेन । ७ एवं कृते सति । ८ -नेव इ०, ल०, म० ।
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