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द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व
३३७ अतीन्द्रिय खोऽप्यात्मा स्याद्धोगरुत्सुको न वै । भोग्यवस्तुगता चिन्ता जायते नास्य जात्वतः ॥६६॥ प्राप्तातीन्द्रियसौन्दर्यो नेच्छेत्स्नानादिसत्क्रियाम् । स्नातको नित्यशुद्धात्मा बहिरन्तर्मलक्षयात् ॥७०॥ अतीन्द्रियात्मदेहश्च नाहारादीनपेक्षते । क्षुव्याधिविषशस्त्रादिबाधातीततनुः स वै ॥७१॥ भवेच्च न तपःकामो वीतजातिजरामतिः । नावासान्तरमन्विच्छेद् प्रात्मवासे च सुस्थितः ॥७२॥ स एवमखिलोषैः मुक्तो युक्तोऽखिलैर्गुणः । परमात्मा पर ज्योतिः परमेष्ठीति गीयते ॥७३॥ कामरूपित्वमाप्तस्य लक्षणं चेन्न साम्प्रतम् । सरागः कामरूपी स्याद् अकृतार्थश्च सोऽञ्जसा ॥७४॥ प्रकृतिस्थेन रूपेण प्राप्तुं यो नालमीप्सितम् । स वैकृतेन रूपेण कामरूपी कथं सुखी ॥७॥
इति पुरुषनिदर्शनम् । निगलस्थो यथानष्ट गन्त देशमलन्तराम् । कर्मबन्धनबद्धोऽपि नष्टं धाम तथे ययात् ॥७६॥ यथेह बन्धनान्मुक्तः परं स्वातन्त्र्यमृच्छति । कर्नबन्धनमुक्तोऽपि तथोपाच्छेत् स्वतन्त्रताम् ॥७७॥ निगलस्थो विपाशश्च स एवैकः पुमान्यथा । कर्मबद्धो विमुक्तश्च स एवात्मा मतस्तथा ॥७॥
इति निगलनिदर्शनम् । मुक्तेतरात्मनोक्त्यै द्वयमेतन्निदशितम् । तदृढीकरणायेष्टं सत्संसारिनिदर्शनम् ॥७९॥ वह स्वयं कृतकृत्य होकर लोकके अग्र शिखरपर सिद्धालयमें जा पहुँचता है ॥६८॥ इसी प्रकार अतीन्द्रिय सुखको धारण करनेवाला पुरुष भी भोगोंसे उत्कंठित नहीं होता, क्योंकि उसे भोग करने योग्य वस्तुओंकी चिन्ता ही कभी नहीं होती है ॥६९॥ जिसे अतीन्द्रिय सौन्दर्य प्राप्त हुआ है वह भी कभी स्नान आदि क्रियाओंकी इच्छा नहीं करता, क्योंकि बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग मलका क्षय हो जानेसे वह स्वयं स्नातक कहलाता है और उसका आत्मा निरन्तर शुद्ध रहता है ।।७०। इसी प्रकार जिसके अतीन्द्रिय आत्मा ही शरीर है वह आहार आदिकी अपेक्षा नहीं करता क्योंकि उसका आत्मारूप शरीर क्षधा, व्याधि, विष और शस्त्र आदिकी बाधासे रहित होता है ॥७१॥ जिसके जन्म, जरा और मरण नष्ट हो चुके हैं वह कभी तपकी
हों करता तथा जो आत्मारूपी घरमें सखसे स्थित रहता है वह कभी दूसरे आवासकी इच्छा नहीं करता ॥७२॥ इस प्रकार जो समस्त दोषोंसे रहित है, समस्त गुणोंसे सहित है, परमात्मा है और उत्कृष्ट ज्योति स्वरूप है वही परमेष्ठी कहलाता है ॥७३॥ कदाचित् आप यह कहें कि कामरूपित्व अर्थात् इच्छानुसार अनेक अवतार धारण करना आप्तका लक्षण है तो आपका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो कामरूपी होता है वह अवश्य ही रागसहित तथा अकृतकृत्य होता है ।।७४।। जो स्वाभाविक रूपसे अपना इष्ट प्राप्त करनेके लिये समर्थ नहीं है वह कामरूपी विकृत रूपसे कैसे सखी हो सकता है ? ॥७५।। यह पुरुषका उदाहरण कहा, अब निगलका उदाहरण कहते हैं।
जिस प्रकार निगल अर्थात् बेड़ी में बंधा हुआ जीव अपने इष्ट स्थानपर जानेके लिये
हीं होता है उसी प्रकार कर्मरूप बन्धनसे बंधा हआ जीव भी अपने इष्ट स्थानपर नहीं पहुंच सकता ॥७६।। जिस प्रकार इस लोकमें बन्धनसे छुटा हुआ पुरुष परम स्वतन्त्रताको प्राप्त होता है उसी प्रकार कर्मबन्धनसे छूटा हुआ पुरुष भी स्वतन्त्रताको प्राप्त होता है ॥७७॥ और जिस प्रकार बेड़ीसे बंधा हुआ तथा बेड़ीसे छूटा हुआ पुरुष एक ही माना जाता है उसी प्रकार कर्मोसे बंधा हुआ तथा कर्मोसे छूटा हुआ पुरुष भी एक ही माना जाता है ॥७८।। यह निगलका उदाहरण है, इस प्रकार मुक्त और संसारी आत्माओंको प्रकट करनेके लिये ये दो
१ युक्तम् । २ स्वभावस्थेन । ३ अशक्तः । ४ विकारजेन । ५ शृंखलाबन्धनस्थः। ६ स्थानम् । ७ गच्छेत् । ८ गच्छेत् । ६ -दर्शनम् प०, ल०, म०। १० पुरुषार्थवृद्धिकरणाय ।
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