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महापुराणम्
राजविद्यापरिज्ञानादैहिकेऽर्थे दृढा मतिः । धर्मशास्त्रपरिज्ञानान्मतिर्लोकद्वयाश्रिता ॥३४॥ क्षत्रियास्तीर्थमुत्पाद्य येऽभूवन् परमर्षयः । ते महादेवशब्दाभिधेया माहात्म्ययोगतः ॥ ३५॥ आदिशत्रिवृत्तस्याः पार्थिवा ये महान्वयाः । महत्त्वानु गतास्तेऽपि महादेवप्रथां गताः ॥ ३६॥ तद्देव्यश्च महादेव्यो महाभिजन 'योगतः । महद्भिः परिणीतत्वात् प्रसूतेश्च महात्मनाम् ॥३७॥ इत्येवमास्थिते' पक्ष जैनैरन्यमताश्रयी । यदि कश्चित् प्रतिब्रूयान्मिथ्यात्वोपहताशयः ॥ ३८ ॥ वयमेव महादेवा जगन्निस्तारका वयम् । नास्मदाप्तात् परोऽस्त्याप्तो मतं नास्मन्मतात्परम् ॥३६॥ इत्यत्र ब्रूमहे नेतत्सारं संसारवारिधेः । यः समुत्तरणोपायः स मार्गों जिनदेशितः ॥४०॥ प्राप्तोऽर्हन्वीत दोषत्वाद् प्राप्तम्मन्यास्ततोऽपरे । तेषु वागात्मभाग्यातिशयानामविभावनात् ' ॥ ४१ ॥ वागाद्यतिशयोपेतः सार्वः सर्वार्थदुग्जिनः । स्यादाप्तः परमेष्ठी' च परमात्मा सनातनः ॥ ४२ ॥ -स वागतिशयो ज्ञेयो येनायं विभुरऋमात् । वचसैकेन दिव्येन प्रीणयत्यखिलां सभाम् ॥४३॥ तयात्मातिशयोऽप्यस्य दोषावरण सङशयात् । अनन्तज्ञानदृग्वीर्थं सुखातिशयसन्निधिः ॥ ४४॥ प्रातिहार्यमयी भूतिः उद्भूतिश्च सभावनः । गणाश्च द्वादशेत्येष स्याद्भाग्यातिशयोऽर्हतः ॥४५॥ हो सकता है और अरहंत भी वही हो सकता है जो ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय कर्मका क्षय कर चुका हो। इसलिये अपने मनका मल दूर करनेके लिये अरहन्तदेव के मतका अभ्यास करना चाहिये ||३३|| राजविद्याका परिज्ञान होनेसे इस लोक सम्बन्धी पदार्थों में बुद्धिदृढ़ हो जाती है और धर्मशास्त्रका परिज्ञान होनेसे इस लोक तथा परलोक दोनों लोक सम्बन्धी पदार्थों में दृढ़ हो जाती है ||३४|| जो क्षत्रिय तीर्थ उत्पन्न कर परमर्षि हो गये हैं वे अपने माहात्म्यके योगसे महादेव कहलाते हैं ।। ३५ ।। बड़े बड़े वंशोंमें उत्पन्न हुए जो राजा लोग आदिक्षत्रिय-भगवान् वृषभदेवके चारित्रमें स्थिर रहते हैं वे भी माहात्म्यके योगसे महादेव इस प्रसिद्धिको प्राप्त हुए हैं || ३६ | ऐसे पुरुषोंकी स्त्रियां भी बड़े पुरुषोंके साथ सम्बन्ध होनेसे - बड़े पुरुषों द्वारा विवाहित होनेसे और महापुरुषोंको उत्पन्न करनेसे महादेवियां कहलाती हैं ||३७|| इस प्रकार जैनियोंके द्वारा अपना पक्ष स्थिर कर लेनेपर मिथ्यादर्शनसे जिसका हृदय नष्ट हो रहा है ऐसा कोई अन्यमतावलम्बी पुरुष यदि कहे कि हम ही महादेव हैं, संसारसे तारने वाले भी हम ही हैं, हमारे देवके सिवाय अन्य कोई देव नहीं हैं और हमारे धर्मके सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं है ।। ३८-३९ ।। परन्तु इस विषय में हम यही कहते हैं कि उसका यह कहना सारपूर्ण नहीं है क्योंकि संसारसमुद्र से तिरनेका जो उपाय है वह जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ मार्ग ही है ॥४०॥ रागद्वेष आदि दोषोंसे रहित होनेके कारण एक अर्हन्तदेव ही आप्त हैं उनके सिवाय जो अन्य देव हैं वे सब आप्तं मन्य हैं अर्थात् झूठमूठ ही अपनेको आप्त मानते हैं क्योंकि उनमें वाणी, आत्मा और भाग्य के अतिशय का कुछ भी निश्चय नहीं है ॥४१॥ जितेन्द्र भगवान् वाणी आदिके अतिशय से सहित हैं, सबका हित करनेवाले हैं, समस्त पदार्थोंको साक्षात् देखने वाले हैं, परमेष्ठी हैं, परमात्मा हैं और सनातन हैं इसलिये वे ही आप्त हो सकते हैं ॥४२॥ भगवान् अरहन्तदेव अपनी जिस एक दिव्य वाणीके द्वारा समस्त सभाको संतुष्ट करते हैं वही उनकी वाणीका अतिशय जानना चाहिये ||४३|| इसी प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मके अत्यन्त क्षय हो जानेसे जो उनके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बलकी समीपता प्रकट होती है वही उनके आत्माका अतिशय है ।।४४ ।। तथा आठ प्रातिहार्यरूप विभूति प्राप्त होना, समवसरणभूमिकी रचना होना
१ प्रवचनम् । २ –नुगमास्तेऽपि प०, अ०, स०, इ०, ल०, म० । ३ महाकुल । ४ विवाहितत्वात । ५ प्रतिज्ञाते । ६ अस्माकमाप्तात् । ७ न्याय्यम् । ८ अनिश्चयात् । ६ परमपदस्थः ।
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